Friday

केदार जी की एक कविता

केदारनाथ सिंह की यह कविता पहली बार तब पढ़ी जब मां हिन्दी में एम०ऐ० कर रही थी। मैं कुछ 11-12 का रहा हूंगा। तब से जितनी बार इसे पढ़ा, नया पाया। ख़ासकर चेन्नई में कई महीनों के एकांत के दौरान। बहुत मुमकिन है आपने इसे पहले पढ़ा हो। फिर भी पोस्ट कर रहा हूं।

उस शहर में जो एक मौलसिरी का पेड़ है


उस शहर में जो एक मौलसिरी का पेड़ है
कहीं उसी के आसपास
रहती थी एक स्त्री
जिसे मैं प्यार करता हूं
उस शहर में रहते थे और भी बहुत-से लोग
जो मई की इस धूप में
मुझे उसी तरह याद हैं
जैसे याद है वह मौलसिरी का पेड़
पर अब वह शहर कहां है
तुम पूछोगे तो मैं कुछ नहीं बता पाऊंगा
वहां तक ले जाती है कौन सी सड़क
मुझे कुछ भी याद नहीं
मैं दावे के साथ ये भी नहीं कह सकता
कि वह स्त्री
जिसे मैं अब भी - अब भी प्यार करता हूं
कभी किसी शहर में रहती भी थी
या नहीं
पर इतना तय है
मैं उसे प्यार करता हूं

मैं इस दुनिया को
एक पुरुष की सारी वासना के साथ
इसलिए प्यार करता हूं
कि मैं प्यार करता हूं
एक स्त्री को।


केदारनाथ सिंह

Saturday

जयंत महापात्र और चंद्रभागा

जयंत महापात्र से मेरा बातचीत का सिलसिला साल 2000 में शुरु हुआ। उन दिनों मैं बहुत शिद्दत से अपने कैशोर्य की कविताओं को किसी अच्छी पत्रिका में छपवाने का प्रयास कर रहा था (बहुत सफलता मिली हो, ऐसा नहीं है!)। महापात्र द्वारा संपादित चंद्रभागा हाल में ही दोबारा निकलनी शुरु हुई थी। इससे पहले, चंद्रभागा की पहली श्रृंखला 1975 से शुरु होकर 79 में छ्पनी बंद हुई थी। ऐसा क्य़ूं हुआ ये तो मालूम नहीं, पर आर्थिक कारण ज़रूर रहे होंगे। 70 के दशक में भारतीय अंग्रेज़ी कविता अपने छुटपन में थी। पर चंद्रभागा सिर्फ़ अंग्रेज़ी लेखन की पत्रिका कभी नहीं रही। भारतीय भाषाओं की कविताओं के अनुवाद पत्रिका में हमेशा प्रमुखता से स्थान पाते रहे। साथ ही, पहली श्रृंखला में भारतीय अंग्रेज़ी कविता की दूसरी पीढ़ी के कई जाने-माने कवि छपे और सराहे गए।

सो मैंने जयंत जी को कुछ कविताएं भेजने का मन बनाया। उनका पता मालूम नहीं था; सिर्फ़ इतना पता था कि वो कटक के रहने वाले है। मैंने जयंत महापात्र, कटक, उड़ीसा के पते पर डाक भेजी, जिसका जवाब लगभग तुरंत ही आ गया। कुछ कविताएं स्वीकृत कर ली गईं थी। संवाद चला और मैंने महापात्र बहुत ही सहज और मिलनसार व्यक्ति पाया। यहां यह कह देना उचित होगा कि भारतीय अंग्रेज़ी कवियों की एक पूरी कतार उनसे शुरु होती है। 70 के दशक में शिकागो की अति-प्रतिष्ठित पोयट्री पत्रिका से वे पुरस्कृत हो चुके थे। एक समीक्षक ने ज़िक्र किया है कि उस दौर की कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका उठाने पर महापात्र की कविता प्रमुखता से छ्पी मिलती थी। यह भी कहना देना उचित लगता है कि भारतीय अंग्रेज़ी कवि अपनी शालीनता के लिए कम ही जाने गए हैं।

खैर, अगले कुछ सालों में मुझे उनसे कई बार संवाद का मौका मिला। पत्रिका के लिए हमने अपने सीमित साधनों में एक वेबसाइट भी तैयार की। चंद्रभागा को निकालने में आने वाली दिक्कतों के बारे महापात्र ने मुझे बताया। वे उम्र का सत्तरवां वसंत पार कर चुके थे और कटक के लब्ध-प्रतिष्ठ रेवन्शॉ कॉलेज के भौतिकी प्रोफ़ेसर के अपने पद से कई साल पहले रिटायर हो चुके थे। बातों में बात ये भी निकली कि अंग्रेज़ी गद्य के ताबड़तोड़ बाज़ार का खमियाज़ा कविता को चुकाना पड़ा है। सच ये है कि अंग्रेज़ी में कविता लिखने की वजहें कम से कमतर होती जा रही हैं। चंद्रभागा जैसे प्रकाशनों के लिए आर्थिक मदद के कोई ज़रिए नहीं है। लगभग सभी बड़ी प्रकाशन ’कंपनियां’ कविता को सिरे से ख़ारिज कर देती हैं। ऐसा भारत ही में हो या केवल अंग्रेज़ी में, ऐसी बात नहीं है।

चंद्रभागा की दूसरी श्रृंखला सात साल तक अनवरत चली। फिर पता चला कि महापात्र का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और शायद पत्रिका को विराम देना पड़े। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद उन्होंने चंद्रभागा की सामग्री और मुद्रण के ऊंचे स्तर को हमेशा बनाए रखा। 128 पन्नों की चंद्रभागा का हर अंक संग्रहणीय बनाया। हाल के एक अंक में पाश की कविताओं के अनुवाद छ्पे। चांद का मुंह टेढ़ा है और लुक़मान अली छ्पीं। केदारनाथ सिंह जी की कविताओं के अनुवाद भी छपे। उत्तर-पूर्व की खासी और मणिपुरी आदि भाषाओं की कविताओं के दुर्लभ अनुवाद भी चंद्रभागा में समय-समय पर पढ़ने को मिले। साथ ही दिलीप चित्रे और केकी दारुवाला जैसे कवियों का ताज़ा काम भी। कविता के ऊपर फोकस रखते हुए हर अंक में दो-तीन श्रेष्ठ कहानियों को भी प्रकाशित किया जाता रहा।

अभी हाल ही में मालूम हुआ कि चंद्रभागा अनियतकालीन पत्रिका के तौर पर चलती रहेगी। एक तरह से इसे पत्रिका की तीसरी श्रृंखला मानें। आशा है कि महापात्र सालों तक भारतीय कविता के स्तंभ बने रहेंगे। जब तक उन जैसे लोग हैं उम्मीद बनी रहेगी।

बहरहाल, चंद्रभागा में छ्पी दसियों नायाब कविताओं में से इसे देखें। अरुण कोलातकर यूं भी कमाल के कवि थे, पर ये कविता मुझे खास तौर पर पसंद है।

महापात्र के साथ एक साक्षात्कार यहां पढ़ें। उनकी एक कविता यहां।

Thursday

प्रवास में याद: दो प्रेम कविताएं

1

मैंने जाना नहीं तुम्हें
जब थीं सोलह की
और ढूढ़ता रहा बरसों
तुम्हारे चेहरे पर उस उम्र का तेज।

तुमने खोदा मुझे बचपन से अचानक
और सींचा, ढाला, बनाया
अपने लिए
चुपचाप।

2

तुम कभी नहीं जान पाओ शायद
मैं कैसे जिया तुम्हारे बगैर

इकलौती आरामकुर्सी रही खाती हिचकोले
रोशनदान को तरसते कमरे के बीचोंबीच

जैसे मां ढके रही मेरे जुर्म-दोष बरसों-बरस
जूठे बर्तनों पर औंधी पड़ी रही तश्तरियां

बहुत कुछ ज़ाया गया शहर की नालियों में
जो लगना था कभी मेरे अंग

बहुत कुछ ख़ाक़ गया पकते वक़्त
जो कल्पना में रहा सुगंधों से भरपूर

सुबहों में सीढ़ियां बस उतरी हीं उतरी हीं
बिखरी रही मैली कमीज़ें हर ओर

खाली राशन डिब्बों से परेशान कमरा मेरा
सहेजे रहा मेरे दुर्गुणों को हर छोर

कि तुम आओ और चिल्ला सको बेधड़क
कि क्या मचा रक्खा है ये सब?


समर्थ वाशिष्ठ

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समकालीन भारतीय साहित्य, 2008