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Thursday

एक और कविता

अलविदा



क्या था जो मैं कर पाता
साल के आखिरी दिन

एक मुखौटे बदलते दशक के
वीभत्स होते चेहरे पर
फिसलते पुराने से क्षण

वही धारावाहिक, वही स्मृतियां
कुरेदती हृदय के द्वार

सप्ताह की वही उदास कविता।

सो मैंने ढूंढ़ी अपनी धार
बना डाली दाढ़ी
और उसे पानी में बहता देख
कहा -
मेरी मुहब्बत के साल
भाड़ में जा।

समर्थ वाशिष्ठ

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पहल 82, 2006