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Friday

Predicting Tianenmen with Hindsight


इन दिनों बारह साल पहले पढी केकी दारूवाला की ये कविता बहुत याद आई. अंततः, 'चंद्रभागा' का वो अंक ढूंढकर कविता टाइप कर डाली. पढ़ें...

"Where you have city squares
and unhappy students
you will eventually have tanks."


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Predicting Tianenmen with Hindsight
                                        - Keki N Daruwalla

Where there is spring
there will be flowers.
Where there are city squares
there will be students,
and speeches and slogans.
Dreams will hiss out of valves
like white steam.

The next day or the next week
or the week after that
come the armed police.
Where they go will be truncheons
and where there are truncheons
there are going to be sore backsides
and where there is tear gas
there'll be tears
(One needed no clairvoyance
for that one).

The troops will come in then,
recruits still in their teens,
proud of their uniforms.
They march so stiffly
they will be a tired lot
before they even reach the square.

They've been given pep talks,
even as they set out from the barracks.
"You'll get a few hoodlums there,
foreign agents mostly;
throw them out!"

But they get waylaid.
People start running alongside
these marching squares.
When people turn emotional
even cliches make sense.
"You are flesh of our flesh,
blood of our blood," they shout
"You can't fire at us!"

Loudspeakers start howling
like wolf-packs at each other.
The Party loudspeakers
give endless renditions of the martial law,
and read out tear jerking letters
from the mothers of the students
exhorting them to read
the key speeches of the Great Helmsman.

APCs now ring the town.
The reluctant troops from the city
have to be ringed
by less reluctant troops
from lesser cities,
and they in turn will be encircled
by troops from the very outposts,
from Tartary and Mongolia and the Gobi desert,
spiral around spiral,
an expanding universe of concentrics.

There will be vigils now and rumours:
such and such an army has left the barracks.
Helicopters have left a particular air base.
Cobbled on the pavements,
with the night as blanket,
the students go to sleep.

Next morning, if that's the word
for night cut up in half
by tracer bullets,
come the tanks.
Where you have city squares
and unhappy students
you will eventually have tanks.

'सबद' पर कुछ कविताएं

हिंदी की चर्चित ब्लॉग-पत्रिका, सबद, पर मेरा आत्मकथ्य और कुछ कविताएं प्रकाशित हुई हैं।

यहां देखें।

Thursday

रात्रि बस में बूढ़े दंपत्ति

बाहर देखते अवाक

ढल रहा है सूर्य
सब दुरुस्त
जो नहीं वो होगा ठीक

क्षितिज के पार
कोई जानता है तकते उन्हें
दूर से सलाम कहता एक दोस्त

फिर ढल रहा है सूर्य
सैंकड़ों बार दिखता ये दृश्य
देर से भटका कोई परिंदा
लौट पाता घर

कुछ देर में
उनकी पलकें हो जाएंगी भारी
गिरते सिर
रात्रि से पाएंगे पार

सब जो उनके सोने पर लेगा अंगड़ाई
कभी नहीं जानेगा सूर्य


समर्थ वाशिष्ठ
________

पहल 82, 2006

Saturday

जयंत महापात्र और चंद्रभागा

जयंत महापात्र से मेरा बातचीत का सिलसिला साल 2000 में शुरु हुआ। उन दिनों मैं बहुत शिद्दत से अपने कैशोर्य की कविताओं को किसी अच्छी पत्रिका में छपवाने का प्रयास कर रहा था (बहुत सफलता मिली हो, ऐसा नहीं है!)। महापात्र द्वारा संपादित चंद्रभागा हाल में ही दोबारा निकलनी शुरु हुई थी। इससे पहले, चंद्रभागा की पहली श्रृंखला 1975 से शुरु होकर 79 में छ्पनी बंद हुई थी। ऐसा क्य़ूं हुआ ये तो मालूम नहीं, पर आर्थिक कारण ज़रूर रहे होंगे। 70 के दशक में भारतीय अंग्रेज़ी कविता अपने छुटपन में थी। पर चंद्रभागा सिर्फ़ अंग्रेज़ी लेखन की पत्रिका कभी नहीं रही। भारतीय भाषाओं की कविताओं के अनुवाद पत्रिका में हमेशा प्रमुखता से स्थान पाते रहे। साथ ही, पहली श्रृंखला में भारतीय अंग्रेज़ी कविता की दूसरी पीढ़ी के कई जाने-माने कवि छपे और सराहे गए।

सो मैंने जयंत जी को कुछ कविताएं भेजने का मन बनाया। उनका पता मालूम नहीं था; सिर्फ़ इतना पता था कि वो कटक के रहने वाले है। मैंने जयंत महापात्र, कटक, उड़ीसा के पते पर डाक भेजी, जिसका जवाब लगभग तुरंत ही आ गया। कुछ कविताएं स्वीकृत कर ली गईं थी। संवाद चला और मैंने महापात्र बहुत ही सहज और मिलनसार व्यक्ति पाया। यहां यह कह देना उचित होगा कि भारतीय अंग्रेज़ी कवियों की एक पूरी कतार उनसे शुरु होती है। 70 के दशक में शिकागो की अति-प्रतिष्ठित पोयट्री पत्रिका से वे पुरस्कृत हो चुके थे। एक समीक्षक ने ज़िक्र किया है कि उस दौर की कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका उठाने पर महापात्र की कविता प्रमुखता से छ्पी मिलती थी। यह भी कहना देना उचित लगता है कि भारतीय अंग्रेज़ी कवि अपनी शालीनता के लिए कम ही जाने गए हैं।

खैर, अगले कुछ सालों में मुझे उनसे कई बार संवाद का मौका मिला। पत्रिका के लिए हमने अपने सीमित साधनों में एक वेबसाइट भी तैयार की। चंद्रभागा को निकालने में आने वाली दिक्कतों के बारे महापात्र ने मुझे बताया। वे उम्र का सत्तरवां वसंत पार कर चुके थे और कटक के लब्ध-प्रतिष्ठ रेवन्शॉ कॉलेज के भौतिकी प्रोफ़ेसर के अपने पद से कई साल पहले रिटायर हो चुके थे। बातों में बात ये भी निकली कि अंग्रेज़ी गद्य के ताबड़तोड़ बाज़ार का खमियाज़ा कविता को चुकाना पड़ा है। सच ये है कि अंग्रेज़ी में कविता लिखने की वजहें कम से कमतर होती जा रही हैं। चंद्रभागा जैसे प्रकाशनों के लिए आर्थिक मदद के कोई ज़रिए नहीं है। लगभग सभी बड़ी प्रकाशन ’कंपनियां’ कविता को सिरे से ख़ारिज कर देती हैं। ऐसा भारत ही में हो या केवल अंग्रेज़ी में, ऐसी बात नहीं है।

चंद्रभागा की दूसरी श्रृंखला सात साल तक अनवरत चली। फिर पता चला कि महापात्र का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और शायद पत्रिका को विराम देना पड़े। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद उन्होंने चंद्रभागा की सामग्री और मुद्रण के ऊंचे स्तर को हमेशा बनाए रखा। 128 पन्नों की चंद्रभागा का हर अंक संग्रहणीय बनाया। हाल के एक अंक में पाश की कविताओं के अनुवाद छ्पे। चांद का मुंह टेढ़ा है और लुक़मान अली छ्पीं। केदारनाथ सिंह जी की कविताओं के अनुवाद भी छपे। उत्तर-पूर्व की खासी और मणिपुरी आदि भाषाओं की कविताओं के दुर्लभ अनुवाद भी चंद्रभागा में समय-समय पर पढ़ने को मिले। साथ ही दिलीप चित्रे और केकी दारुवाला जैसे कवियों का ताज़ा काम भी। कविता के ऊपर फोकस रखते हुए हर अंक में दो-तीन श्रेष्ठ कहानियों को भी प्रकाशित किया जाता रहा।

अभी हाल ही में मालूम हुआ कि चंद्रभागा अनियतकालीन पत्रिका के तौर पर चलती रहेगी। एक तरह से इसे पत्रिका की तीसरी श्रृंखला मानें। आशा है कि महापात्र सालों तक भारतीय कविता के स्तंभ बने रहेंगे। जब तक उन जैसे लोग हैं उम्मीद बनी रहेगी।

बहरहाल, चंद्रभागा में छ्पी दसियों नायाब कविताओं में से इसे देखें। अरुण कोलातकर यूं भी कमाल के कवि थे, पर ये कविता मुझे खास तौर पर पसंद है।

महापात्र के साथ एक साक्षात्कार यहां पढ़ें। उनकी एक कविता यहां।

Thursday

प्रवास में याद: दो प्रेम कविताएं

1

मैंने जाना नहीं तुम्हें
जब थीं सोलह की
और ढूढ़ता रहा बरसों
तुम्हारे चेहरे पर उस उम्र का तेज।

तुमने खोदा मुझे बचपन से अचानक
और सींचा, ढाला, बनाया
अपने लिए
चुपचाप।

2

तुम कभी नहीं जान पाओ शायद
मैं कैसे जिया तुम्हारे बगैर

इकलौती आरामकुर्सी रही खाती हिचकोले
रोशनदान को तरसते कमरे के बीचोंबीच

जैसे मां ढके रही मेरे जुर्म-दोष बरसों-बरस
जूठे बर्तनों पर औंधी पड़ी रही तश्तरियां

बहुत कुछ ज़ाया गया शहर की नालियों में
जो लगना था कभी मेरे अंग

बहुत कुछ ख़ाक़ गया पकते वक़्त
जो कल्पना में रहा सुगंधों से भरपूर

सुबहों में सीढ़ियां बस उतरी हीं उतरी हीं
बिखरी रही मैली कमीज़ें हर ओर

खाली राशन डिब्बों से परेशान कमरा मेरा
सहेजे रहा मेरे दुर्गुणों को हर छोर

कि तुम आओ और चिल्ला सको बेधड़क
कि क्या मचा रक्खा है ये सब?


समर्थ वाशिष्ठ

___________
समकालीन भारतीय साहित्य, 2008

Friday

Of Simla and the Jakhu peak

It was a pleasant surprise this morning when a friend sent me the URL of the vignette, "The muse rises in Shimla" from The Tribune. The article quotes my nugget poem on the Jakhu peak that I wrote and published in 2001. It is heartening to see that my work has survived seven full years in this age of instant messaging and push-button publishing.

Many thanks, Shriniwas, for caring to discuss my poem. I just wanted to add that I was not visiting Jakhu at that time. I spent most of my childhood in Simla living at the other end of the city--Summer Hill--from where Jakhu is visible as the highest point in the city. The night-time view of the peak is brilliant--it looks like a vast expanse of light!

In fact, I visited Jakhu for the first time very recently--in 2007 when I returned to the city as a tourist.

Now, finally, the poem.

Gyration

On the ban
sits the ape
and wonders

Who coloured the sky
and pinned it
to the Jakhu peak?

Thursday

एक और कविता

अलविदा



क्या था जो मैं कर पाता
साल के आखिरी दिन

एक मुखौटे बदलते दशक के
वीभत्स होते चेहरे पर
फिसलते पुराने से क्षण

वही धारावाहिक, वही स्मृतियां
कुरेदती हृदय के द्वार

सप्ताह की वही उदास कविता।

सो मैंने ढूंढ़ी अपनी धार
बना डाली दाढ़ी
और उसे पानी में बहता देख
कहा -
मेरी मुहब्बत के साल
भाड़ में जा।

समर्थ वाशिष्ठ

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पहल 82, 2006

Wednesday

अलोप - एक कविता

स्वदेश दीपक से मेरा परिचय थोड़ा पढ़ने और ज़्यादा बोलने की उम्र में हुआ। ये एक ऐसे शहर में रहने का वरदान था जहां का साहित्यिक परिवेश रंगीन मंचों से चिल्लाई जाने वाली तुकबंदी तक सीमित है।

मेरी उस वक़्त की अनेक बचकानी कविताओं को धैर्य से सुनने के अलावा, वे मेरे लिए ताज़ा किताबों और पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण स्रोत बने।

दीपक का जाना मेरे लिए अचंभे से दूर सिर्फ़ दुःख बनकर आया। मैंने मांडू नहीं देखा को कड़ी दर कड़ी निपटाते उन्हें मैंने देखा था। सामान बंधा था, सिर्फ़ हिन्दी बोलते अंग्रेज़ गार्ड के सीटी बजाने की देर थी।


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अलोप




स्वदेश दीपक के लिए

1

एक खेत की मेड़ पर चलती
मोरों की कतार में
कौनसे हो तुम?

पहचानना भी तो नहीं आसान
कि मायाविनी ले गई संग।

2

बरसों तक
खड़िया-चॉक जैसी किसी चीज़ से
लिखा रहा
जंग खाए मेनगेट पर तुम्हारा नाम

और एक दिन अचानक
दिखे मुझे
ताज़े पुते सफ़ेद पर
सुर्ख़ हिज्जे

ऊपर की चिटखनी बना रहा हालांकि
अंत तक
किसी पुराने पाजामे का वही नाड़ा।

3

जार्जेट के पीले पल्ले सी इक दुपहर*
तुमने बताया
कपड़ों को सूखते देखना
तुम्हारे प्रिय शगलों में शामिल है

शब्दों को भींचते तुम
उठते बातचीत में अचानक
और लिटा आते
अपनी पसंदीदा कमीज़ को औंधा

मुझे आज़ भी परेशान करता है ये रूपक
कि कैसे नर्म, लबालब रेशों में से नमी
हौले-हौले होती है फ़ाख़्ता।

* 'अश्वारोही' की पहली पंक्ति - जार्जेट के पीले पल्ले सी ये दुपहर नवंबर की ।

4

मैं तुम्हें करता था प्यार -
यही कुछ आखिरी शब्द रह जाते हैं
कहते को बाकि

लड़कर आता था मां से
तुम्हारे घर
कुछ नहीं कहते
कि ज़रूरत नहीं थी

तुम इकलौते थे शायद
जिसकी मैंने सुनी

और लौटता था कुछ कीमती लेकर
कि मैंने जाना कुछ बेहतर उसे
जिसने जाना खुद को पुरखु़लूस
हर कीमत पर।

5

तपाक से उठ बैठता हूं मैं
जब आता है तुम्हारा ध्यान

मेरे सपनों में दिखता है
अंतरिक्ष युद्ध में लहुलुहान
आखिरी कोई लड़ाका

कुएं की मुंडेर पर खड़ी लड़की
मुस्कराकर देखती है पीछे
एक अंतिम बार

घड़ी की किस करवट
उठे होगे तुम
करने तैयारी

या यूंही चल दिए होगे सुबह
नाश्ते के बाद
बेतरतीब

बेतरतीब नहीं थे तुम

उस नर्म सुबह
पहुंचे होगे तुम
अपने अदृश्य कोने

जिसे ढूंढा होगा बहुत पहले
कि खत्म हो सके काम
धूप आने तक।


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समर्थ वाशिष्ठ





नोट: ये कविता 'पहल’ के ताज़ा अंक 87 में छ्पी है - शुरुआत में दी टिप्पणी के साथ। सुझावों/प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।


अंतत:...

सोचा एक नया चिठ्ठा शुरु कर ही दिया जाए। पहले भी कई किए, पर लगातार लिखता न रह सका। इस बार कोशिश करूंगा अपना कुछ अच्छा काम डालूं ताकि पाठकों की प्रतिक्रिया मिल सके। पहले पाठक मिलें इस बात की आशा है।

जल्दी ही और लिखता हूं।

हां एक बात और - द्विभाषी रखना चाहूंगा इस चिठ्ठे। ताकि अंग्रेज़ी में भी कुछ कविताएं और छिटपुट बांट सकूं।