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Friday

इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा...

सालों से ये ग़ज़ल अपने मामाजी के मुंह से सुनता आ रहा हूं। एमरजेंसी के ऐन बाद उन्होंने ये ग़ज़ल किसी पत्रिका में पढ़ी थी। उस वक़्त वे बीस साल के रहे होंगे। शायर का नाम नहीं मालूम। बहरहाल, कमाल की रचना है - पैनी राजनैतिक समझ से उपजी! उन्होंने आज ही मुझे डिक्टेट करवाई।


ग़ज़ल
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इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा
आइने में देखने दो मुझको चोटों के निशां

कल हुई थी गुप्त बैठक कर्णधारों के यहां
तय हुआ था बख़्श दो कुछ खास लोगों को ज़ुबां

आदमी के सोचने का दायरा सीमित करो
ताकि उसकी दिक्कतों का हो सके जल्दी निदां

देखकर कुछ हरकतें और जांचकर उनके बयां
हो रहा फिर से अंधेरा पहले जितना सावधां

कह रही लहरें नदी से आज थोड़ा कम उफ़न
बाढ़ का दौरा करेंगे देश के कुछ वायुयां

Wednesday

अंतत:...

सोचा एक नया चिठ्ठा शुरु कर ही दिया जाए। पहले भी कई किए, पर लगातार लिखता न रह सका। इस बार कोशिश करूंगा अपना कुछ अच्छा काम डालूं ताकि पाठकों की प्रतिक्रिया मिल सके। पहले पाठक मिलें इस बात की आशा है।

जल्दी ही और लिखता हूं।

हां एक बात और - द्विभाषी रखना चाहूंगा इस चिठ्ठे। ताकि अंग्रेज़ी में भी कुछ कविताएं और छिटपुट बांट सकूं।