Sunday

मिट्ठूचालीसा - कविता और चित्र

चित्रकला मेरा क्षेत्र कभी भी नहीं रहा। बचपन में तमाम विषय मुझे हलवा लगते थे, पर चित्रकला में बार-बार फेल होते बचता।

बहरहाल, ये चित्र मैंने 2001 में शिमला के ऊपर अपनी एक कविता के साथ बनाया। बीच में कूची कई बार फिसली, तो छोटी बहन (अरण्या) ने इसे अंतिम रूप दिया। खासतौर पर तोता तो एक बार पूरा मुर्ग़ा लगने लगा था!

चित्र को हाई-रेसोल्यूशन में देखने के लिए यहां क्लिक करें।

बताएं कुछ बन पाया क्या। वैसे तो जीवन में दुबारा ये काम न करने के अपने प्रण पर सात साल से अडिग हूं।

और हां, वो कविता - मिट्ठूचालीसा - नीचे अंग्रेज़ी में है।



Mitthhuchalisa

On a leaf rests
a drop
and from within peeps
the sun.

So what, says Mitthhu
If Hanuman did
so can I!

_______________
From Shadows Don't Live In Walls, 2004

Saturday

शिमला 3

अर्धचक्र

एक वानर बैठा बान पर
करता आश्चर्य

किसने रंग दिया आकाश
और चिपका दिय़ा
जाखू शिखर पर?


समर्थ वाशिष्ठ

'वर्तमान साहित्य', 2001
अंग्रेज़ी में: Gyration

Tuesday

शिमला 2

साथी

एक चीड़ थामे है
अपने इकलौते शंकु को
सुन्न हाथों में
और मैं खड़ा हूं नीचे
उसके गिरने की ताक़ में।

बैठी है शंकु पर एक किरण
क्या वह भी गिरेगी?


समर्थ वाशिष्ठ

'वर्तमान साहित्य', 2001
अंग्रेज़ी में: The Escort

Monday

शिमला 1

जयसूर्य

उनींदा सूर्य
छिटककर जड़ता
चढ़ता है
अलसाए शहर पर।
छिन्न-विछिन्न हिमकणों की सेना
पुनर्जीवन पा
उड़ाती है प्रात:-किरणों की
धज्जियां
कौन कहता है
केवल ईश्वर ही
सर्वव्याप्त है?


समर्थ वाशिष्ठ
'वर्तमान साहित्य', 2001

__________________________________
शिमला के ऊपर बिंब कविताओं की यह श्रृंखला 2001 में लिखी थी। आज भी इसे अपने ठीक काम में गिनता हूं। वैसे अपने काम को अच्छा या बुरा कहना कोई मायने नहीं रखता। पाठक ही किसी रचना की सार्थकता की कसौटी होते हैं।

शिमला में मेरा लगभग सारा होश-वाला बचपन बीता। आज भी वो शहर घर जैसा लगता है। ये कविताएं हालांकि शिमला छोड़ने के छ:-सात साल बाद लिखी गईं। कैसी बन पड़ी हैं ज़रूर बताएं।

Thursday

रब्बी शेरगिल का 'छ्ल्ला'

कल आधी रात जब सोने की तैयारी कर रहा था, तब टी० वी० पर रब्बी शेरगिल की नई अलबम में से 'छ्ल्ला' सुना। कमाल का गाना और उतनी ही कमाल की वीडियो। 'छ्ल्ला' हालांकि पंजाब का एक लोक-गीत है जिसे कई गायकों ने अपने अंदाज़ में गाया है। रब्बी का कमाल ये ही है कि आपके अंदर जज़्ब हो चुकी किसी धुन को एक नए रूप में पेश कर देता है। उसकी पहली अलबम में से भी 'बुल्ला की जानां' शायद अकेला ऐसा गाना है जो मैं अब अपने MP3 प्लेयर से मिटा चुका हूं। 'तोतेया मनमोतेया' और 'एक कुड़ी जिदा नां मोहब्बत' जैसे बा़क़ी गाने अब भी बहुत सुनता हूं। 'छ्ल्ला' के बोल जो सुनता आया हूं (ख़ासतौर पर गुरदास मान वाला संस्करण) से काफ़ी अलग़ लगे। क्या रब्बी ने 'जुगनी' की तरह इसे भी अपनी तरह से दोबारा लिखा है? मालूम नहीं।

बहरहाल, गाने की जिन पंक्तियों ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, उनका बेकार हिंदी तर्जुमा कु्छ यूं हो सकता है:

छ्ल्ला बड़ है एक अकेला
जिसने थाम रक्खा है पल्ला
नीचे धरती का और ऊपर अल्लाह
कितनी गहरी जाती हैं उसकी जड़ें
इसका उसे ख़ुद ही नहीं पता

यूट्यूब पर यहां सुनिये और देखिए। आपको भी पसंद आएगा।

Sunday

चेन्नई 1: येशुदास की आवाज़ में हरिनावरसनम

चेन्नई से नोएडा आए आज दो महीने हो गए। जितना प्यार हमें उस शहर ने दिया, अविस्मरणीय है। अलग परिवेश और अपनी ही तरह से अनूठा भी। जीवन में मसरूफ़ सीधे-सादे लोग जिनसे हमने अंग्रेज़ी में ही बहुत कुछ बांटा। आज भी अगर जाएं तो कुछ घर ऐसे कि जिनमें बेधड़क रात को रुक पाएं। और क्या दे सकता है कोई शहर सिर्फ़ डेढ़ साल में?

बहरहाल, बहुत कुछ बताने को है, पर धीरे-धीरे। आज के लिए के० जे० येशुदास की आवाज़ में स्वामी अयप्पा के लिए ये आरती सुनिये। जब भी इसे सुनता हूं, दफ़्तर की आपा-धापी में या किसी रविवार को, बहुत शांति मिलती है। भाषा मलयालम है, फिर भी 90% संस्कृत ही। सो समझ आसानी से आ जाएगी।

अब दो शब्द स्वामी अयप्पा के बारे में। दक्षिण में हमे हिंदू धर्म का स्वरूप काफ़ी अलग मिला। अयप्पा वहां पूज्य मुख्य देवताओं में से एक हैं। उनके जन्म की कहानी भी विचित्र है। उन्हें शिव और विष्णु के मोहिनी अवतार का पुत्र माना जाता है। अयप्पा का एक बड़ा मंदिर केरल में शबरीमला में स्थित है। कहते हैं मक्का में हज से कम सबसे ज़्यादा लोग शबरीमला ही तीर्थ-यात्रा के लिए जाते हैं। साल में तकरीबन 4-5 करोड़ लोग।

शिव के बड़े बेटे कार्तिक के मंदिर भी दक्षिण में बहुत हैं। उन्हें कई नामों में मुरुगन, सर्वनन और थनिगवेल तीन हैं। जब विश्व परिक्रमा में गणेश को विजयी घोषित किया गया तो कार्तिक रूठ कर दक्षिण आ गए थे।

यहां ये जानना भी दिलचस्प है कि येशुदास (कट्टसरी जॉसेफ़ येशुदास) धर्म से ईसाई हैं। उनकी मख़मली आवाज़ दुनिया भर में पसंद की जाती है। हिंदी में भी सदमा फ़िल्म का उनका गाना सुरमई अखिंयों में आज तक किसी को भूला नहीं है। कई कट्टर दक्षिण भारतीय मंदिरों में उनका प्रवेश गैर-हिंदु होने के कारण वर्जित है। हालांकि यही मंदिर सुबह-शाम उनके गाए भजन और आरतियां बजाते हैं।

यूट्यूब पर पूरी आरती यहां सुनें। डाउनलोड करना चाहें तो MP3 मैंने यहां डाली है। 10 MB से ऊपर है, सो अच्छा होगा अगर लिंक को राइट क्लिक कर Save Target As कर लें।

Thursday

रात्रि बस में बूढ़े दंपत्ति

बाहर देखते अवाक

ढल रहा है सूर्य
सब दुरुस्त
जो नहीं वो होगा ठीक

क्षितिज के पार
कोई जानता है तकते उन्हें
दूर से सलाम कहता एक दोस्त

फिर ढल रहा है सूर्य
सैंकड़ों बार दिखता ये दृश्य
देर से भटका कोई परिंदा
लौट पाता घर

कुछ देर में
उनकी पलकें हो जाएंगी भारी
गिरते सिर
रात्रि से पाएंगे पार

सब जो उनके सोने पर लेगा अंगड़ाई
कभी नहीं जानेगा सूर्य


समर्थ वाशिष्ठ
________

पहल 82, 2006

Tuesday

स्त्रियां

मैंने देखा है उन्हें
ऐन पगलाहट के क्षणों में भी
होश संभाले
चीख़ते-चिल्लाते
तानाशाह के कदमों से
अपने मारे जा चुके बेटों को उठाते

विशाल सेनाएं क़दमताल करतीं हैं
क्षितिज तक
आती हैं उन दिशाओं से जिनके बारे कोई नहीं जानता
चिंता में डूबी उनकी आंखों से गुज़र जाती हैं

उनके पास सिर्फ़ एक तिहाई इतिहास है
और सारी की सारी अफ़वाहें
वो धूल भरा पंख है
किसी शक्तिशाली सिंहासन के मुकुट में लगा हुआ

किसी चमकते हुए दिन पति छोड़ जाता है
लौटकर आते हैं बेटे भिक्षुओं के भेस में
एक स्त्री ढूंढ़ती है अपनी नींद के पांच घंटे

रात की मुर्दार शांति में सुबकती है मेरी मां
ऊंघते हुए मुझे कहानियां सुनाती है
मेरी बांहों में पिघलती एक स्त्री
मेरे शरीर के सब अंगों को
जोड़े रखती है एक साथ

हज़ारों साल से जारी है इंतज़ार
औरतें जो चली गईं
उनका बाकी नहीं कोई निशान
एक स्त्री के पास जाने को
कोई जगह नहीं होती।


समर्थ वाशिष्ठ

____________


रसरंग, दैनिक भास्कर, जून 2008

Friday

केदार जी की एक कविता

केदारनाथ सिंह की यह कविता पहली बार तब पढ़ी जब मां हिन्दी में एम०ऐ० कर रही थी। मैं कुछ 11-12 का रहा हूंगा। तब से जितनी बार इसे पढ़ा, नया पाया। ख़ासकर चेन्नई में कई महीनों के एकांत के दौरान। बहुत मुमकिन है आपने इसे पहले पढ़ा हो। फिर भी पोस्ट कर रहा हूं।

उस शहर में जो एक मौलसिरी का पेड़ है


उस शहर में जो एक मौलसिरी का पेड़ है
कहीं उसी के आसपास
रहती थी एक स्त्री
जिसे मैं प्यार करता हूं
उस शहर में रहते थे और भी बहुत-से लोग
जो मई की इस धूप में
मुझे उसी तरह याद हैं
जैसे याद है वह मौलसिरी का पेड़
पर अब वह शहर कहां है
तुम पूछोगे तो मैं कुछ नहीं बता पाऊंगा
वहां तक ले जाती है कौन सी सड़क
मुझे कुछ भी याद नहीं
मैं दावे के साथ ये भी नहीं कह सकता
कि वह स्त्री
जिसे मैं अब भी - अब भी प्यार करता हूं
कभी किसी शहर में रहती भी थी
या नहीं
पर इतना तय है
मैं उसे प्यार करता हूं

मैं इस दुनिया को
एक पुरुष की सारी वासना के साथ
इसलिए प्यार करता हूं
कि मैं प्यार करता हूं
एक स्त्री को।


केदारनाथ सिंह

Saturday

जयंत महापात्र और चंद्रभागा

जयंत महापात्र से मेरा बातचीत का सिलसिला साल 2000 में शुरु हुआ। उन दिनों मैं बहुत शिद्दत से अपने कैशोर्य की कविताओं को किसी अच्छी पत्रिका में छपवाने का प्रयास कर रहा था (बहुत सफलता मिली हो, ऐसा नहीं है!)। महापात्र द्वारा संपादित चंद्रभागा हाल में ही दोबारा निकलनी शुरु हुई थी। इससे पहले, चंद्रभागा की पहली श्रृंखला 1975 से शुरु होकर 79 में छ्पनी बंद हुई थी। ऐसा क्य़ूं हुआ ये तो मालूम नहीं, पर आर्थिक कारण ज़रूर रहे होंगे। 70 के दशक में भारतीय अंग्रेज़ी कविता अपने छुटपन में थी। पर चंद्रभागा सिर्फ़ अंग्रेज़ी लेखन की पत्रिका कभी नहीं रही। भारतीय भाषाओं की कविताओं के अनुवाद पत्रिका में हमेशा प्रमुखता से स्थान पाते रहे। साथ ही, पहली श्रृंखला में भारतीय अंग्रेज़ी कविता की दूसरी पीढ़ी के कई जाने-माने कवि छपे और सराहे गए।

सो मैंने जयंत जी को कुछ कविताएं भेजने का मन बनाया। उनका पता मालूम नहीं था; सिर्फ़ इतना पता था कि वो कटक के रहने वाले है। मैंने जयंत महापात्र, कटक, उड़ीसा के पते पर डाक भेजी, जिसका जवाब लगभग तुरंत ही आ गया। कुछ कविताएं स्वीकृत कर ली गईं थी। संवाद चला और मैंने महापात्र बहुत ही सहज और मिलनसार व्यक्ति पाया। यहां यह कह देना उचित होगा कि भारतीय अंग्रेज़ी कवियों की एक पूरी कतार उनसे शुरु होती है। 70 के दशक में शिकागो की अति-प्रतिष्ठित पोयट्री पत्रिका से वे पुरस्कृत हो चुके थे। एक समीक्षक ने ज़िक्र किया है कि उस दौर की कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका उठाने पर महापात्र की कविता प्रमुखता से छ्पी मिलती थी। यह भी कहना देना उचित लगता है कि भारतीय अंग्रेज़ी कवि अपनी शालीनता के लिए कम ही जाने गए हैं।

खैर, अगले कुछ सालों में मुझे उनसे कई बार संवाद का मौका मिला। पत्रिका के लिए हमने अपने सीमित साधनों में एक वेबसाइट भी तैयार की। चंद्रभागा को निकालने में आने वाली दिक्कतों के बारे महापात्र ने मुझे बताया। वे उम्र का सत्तरवां वसंत पार कर चुके थे और कटक के लब्ध-प्रतिष्ठ रेवन्शॉ कॉलेज के भौतिकी प्रोफ़ेसर के अपने पद से कई साल पहले रिटायर हो चुके थे। बातों में बात ये भी निकली कि अंग्रेज़ी गद्य के ताबड़तोड़ बाज़ार का खमियाज़ा कविता को चुकाना पड़ा है। सच ये है कि अंग्रेज़ी में कविता लिखने की वजहें कम से कमतर होती जा रही हैं। चंद्रभागा जैसे प्रकाशनों के लिए आर्थिक मदद के कोई ज़रिए नहीं है। लगभग सभी बड़ी प्रकाशन ’कंपनियां’ कविता को सिरे से ख़ारिज कर देती हैं। ऐसा भारत ही में हो या केवल अंग्रेज़ी में, ऐसी बात नहीं है।

चंद्रभागा की दूसरी श्रृंखला सात साल तक अनवरत चली। फिर पता चला कि महापात्र का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और शायद पत्रिका को विराम देना पड़े। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद उन्होंने चंद्रभागा की सामग्री और मुद्रण के ऊंचे स्तर को हमेशा बनाए रखा। 128 पन्नों की चंद्रभागा का हर अंक संग्रहणीय बनाया। हाल के एक अंक में पाश की कविताओं के अनुवाद छ्पे। चांद का मुंह टेढ़ा है और लुक़मान अली छ्पीं। केदारनाथ सिंह जी की कविताओं के अनुवाद भी छपे। उत्तर-पूर्व की खासी और मणिपुरी आदि भाषाओं की कविताओं के दुर्लभ अनुवाद भी चंद्रभागा में समय-समय पर पढ़ने को मिले। साथ ही दिलीप चित्रे और केकी दारुवाला जैसे कवियों का ताज़ा काम भी। कविता के ऊपर फोकस रखते हुए हर अंक में दो-तीन श्रेष्ठ कहानियों को भी प्रकाशित किया जाता रहा।

अभी हाल ही में मालूम हुआ कि चंद्रभागा अनियतकालीन पत्रिका के तौर पर चलती रहेगी। एक तरह से इसे पत्रिका की तीसरी श्रृंखला मानें। आशा है कि महापात्र सालों तक भारतीय कविता के स्तंभ बने रहेंगे। जब तक उन जैसे लोग हैं उम्मीद बनी रहेगी।

बहरहाल, चंद्रभागा में छ्पी दसियों नायाब कविताओं में से इसे देखें। अरुण कोलातकर यूं भी कमाल के कवि थे, पर ये कविता मुझे खास तौर पर पसंद है।

महापात्र के साथ एक साक्षात्कार यहां पढ़ें। उनकी एक कविता यहां।

Thursday

प्रवास में याद: दो प्रेम कविताएं

1

मैंने जाना नहीं तुम्हें
जब थीं सोलह की
और ढूढ़ता रहा बरसों
तुम्हारे चेहरे पर उस उम्र का तेज।

तुमने खोदा मुझे बचपन से अचानक
और सींचा, ढाला, बनाया
अपने लिए
चुपचाप।

2

तुम कभी नहीं जान पाओ शायद
मैं कैसे जिया तुम्हारे बगैर

इकलौती आरामकुर्सी रही खाती हिचकोले
रोशनदान को तरसते कमरे के बीचोंबीच

जैसे मां ढके रही मेरे जुर्म-दोष बरसों-बरस
जूठे बर्तनों पर औंधी पड़ी रही तश्तरियां

बहुत कुछ ज़ाया गया शहर की नालियों में
जो लगना था कभी मेरे अंग

बहुत कुछ ख़ाक़ गया पकते वक़्त
जो कल्पना में रहा सुगंधों से भरपूर

सुबहों में सीढ़ियां बस उतरी हीं उतरी हीं
बिखरी रही मैली कमीज़ें हर ओर

खाली राशन डिब्बों से परेशान कमरा मेरा
सहेजे रहा मेरे दुर्गुणों को हर छोर

कि तुम आओ और चिल्ला सको बेधड़क
कि क्या मचा रक्खा है ये सब?


समर्थ वाशिष्ठ

___________
समकालीन भारतीय साहित्य, 2008

Friday

Of Simla and the Jakhu peak

It was a pleasant surprise this morning when a friend sent me the URL of the vignette, "The muse rises in Shimla" from The Tribune. The article quotes my nugget poem on the Jakhu peak that I wrote and published in 2001. It is heartening to see that my work has survived seven full years in this age of instant messaging and push-button publishing.

Many thanks, Shriniwas, for caring to discuss my poem. I just wanted to add that I was not visiting Jakhu at that time. I spent most of my childhood in Simla living at the other end of the city--Summer Hill--from where Jakhu is visible as the highest point in the city. The night-time view of the peak is brilliant--it looks like a vast expanse of light!

In fact, I visited Jakhu for the first time very recently--in 2007 when I returned to the city as a tourist.

Now, finally, the poem.

Gyration

On the ban
sits the ape
and wonders

Who coloured the sky
and pinned it
to the Jakhu peak?

पिता की पचासवीं सालगिरह पर




मेरे सपनों में तुम आते हो
उद्दंड युवक
गोद में पिल्ले को खिलाते

और मैं कल्पना करता हूं वे स्त्रियां
जो हो सकतीं थी मां
पुरुष जो होते तुम

(शायद तब मैं जन्मता
और गहरे प्यार से)

सपनों में पिघलते हैं मोम के पंख
दीवारों और फ़र्श पर बिखरते
जब हम गुज़रते हैं जलती घाटियों से
कविता और प्रेम पर करते बहस

पचास, मेरे कानों में कहते हो तुम
पचास, गूंज़ता है वापिस तुम्हारे पास
और हम चलते जाते हैं साथ-साथ
साल दर साल
जब एक भी दिन हो काटना मुश्किल

सिर्फ़ तुम्हारी दाढ़ी होती जाती है
कुछ और धवल
सिर्फ़ तुम्हारी आंखें खोती जाती हैं
कुछ चमक


समर्थ वाशिष्ठ


__________
रसरंग (रविवारीय परिशिष्ट), दैनिक भास्कर, फरवरी 10, 2008

Thursday

एक और कविता

अलविदा



क्या था जो मैं कर पाता
साल के आखिरी दिन

एक मुखौटे बदलते दशक के
वीभत्स होते चेहरे पर
फिसलते पुराने से क्षण

वही धारावाहिक, वही स्मृतियां
कुरेदती हृदय के द्वार

सप्ताह की वही उदास कविता।

सो मैंने ढूंढ़ी अपनी धार
बना डाली दाढ़ी
और उसे पानी में बहता देख
कहा -
मेरी मुहब्बत के साल
भाड़ में जा।

समर्थ वाशिष्ठ

____
पहल 82, 2006

Wednesday

अलोप - एक कविता

स्वदेश दीपक से मेरा परिचय थोड़ा पढ़ने और ज़्यादा बोलने की उम्र में हुआ। ये एक ऐसे शहर में रहने का वरदान था जहां का साहित्यिक परिवेश रंगीन मंचों से चिल्लाई जाने वाली तुकबंदी तक सीमित है।

मेरी उस वक़्त की अनेक बचकानी कविताओं को धैर्य से सुनने के अलावा, वे मेरे लिए ताज़ा किताबों और पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण स्रोत बने।

दीपक का जाना मेरे लिए अचंभे से दूर सिर्फ़ दुःख बनकर आया। मैंने मांडू नहीं देखा को कड़ी दर कड़ी निपटाते उन्हें मैंने देखा था। सामान बंधा था, सिर्फ़ हिन्दी बोलते अंग्रेज़ गार्ड के सीटी बजाने की देर थी।


_____


अलोप




स्वदेश दीपक के लिए

1

एक खेत की मेड़ पर चलती
मोरों की कतार में
कौनसे हो तुम?

पहचानना भी तो नहीं आसान
कि मायाविनी ले गई संग।

2

बरसों तक
खड़िया-चॉक जैसी किसी चीज़ से
लिखा रहा
जंग खाए मेनगेट पर तुम्हारा नाम

और एक दिन अचानक
दिखे मुझे
ताज़े पुते सफ़ेद पर
सुर्ख़ हिज्जे

ऊपर की चिटखनी बना रहा हालांकि
अंत तक
किसी पुराने पाजामे का वही नाड़ा।

3

जार्जेट के पीले पल्ले सी इक दुपहर*
तुमने बताया
कपड़ों को सूखते देखना
तुम्हारे प्रिय शगलों में शामिल है

शब्दों को भींचते तुम
उठते बातचीत में अचानक
और लिटा आते
अपनी पसंदीदा कमीज़ को औंधा

मुझे आज़ भी परेशान करता है ये रूपक
कि कैसे नर्म, लबालब रेशों में से नमी
हौले-हौले होती है फ़ाख़्ता।

* 'अश्वारोही' की पहली पंक्ति - जार्जेट के पीले पल्ले सी ये दुपहर नवंबर की ।

4

मैं तुम्हें करता था प्यार -
यही कुछ आखिरी शब्द रह जाते हैं
कहते को बाकि

लड़कर आता था मां से
तुम्हारे घर
कुछ नहीं कहते
कि ज़रूरत नहीं थी

तुम इकलौते थे शायद
जिसकी मैंने सुनी

और लौटता था कुछ कीमती लेकर
कि मैंने जाना कुछ बेहतर उसे
जिसने जाना खुद को पुरखु़लूस
हर कीमत पर।

5

तपाक से उठ बैठता हूं मैं
जब आता है तुम्हारा ध्यान

मेरे सपनों में दिखता है
अंतरिक्ष युद्ध में लहुलुहान
आखिरी कोई लड़ाका

कुएं की मुंडेर पर खड़ी लड़की
मुस्कराकर देखती है पीछे
एक अंतिम बार

घड़ी की किस करवट
उठे होगे तुम
करने तैयारी

या यूंही चल दिए होगे सुबह
नाश्ते के बाद
बेतरतीब

बेतरतीब नहीं थे तुम

उस नर्म सुबह
पहुंचे होगे तुम
अपने अदृश्य कोने

जिसे ढूंढा होगा बहुत पहले
कि खत्म हो सके काम
धूप आने तक।


____

समर्थ वाशिष्ठ





नोट: ये कविता 'पहल’ के ताज़ा अंक 87 में छ्पी है - शुरुआत में दी टिप्पणी के साथ। सुझावों/प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।


अंतत:...

सोचा एक नया चिठ्ठा शुरु कर ही दिया जाए। पहले भी कई किए, पर लगातार लिखता न रह सका। इस बार कोशिश करूंगा अपना कुछ अच्छा काम डालूं ताकि पाठकों की प्रतिक्रिया मिल सके। पहले पाठक मिलें इस बात की आशा है।

जल्दी ही और लिखता हूं।

हां एक बात और - द्विभाषी रखना चाहूंगा इस चिठ्ठे। ताकि अंग्रेज़ी में भी कुछ कविताएं और छिटपुट बांट सकूं।