मेरी उस वक़्त की अनेक बचकानी कविताओं को धैर्य से सुनने के अलावा, वे मेरे लिए ताज़ा किताबों और पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण स्रोत बने।
दीपक का जाना मेरे लिए अचंभे से दूर सिर्फ़ दुःख बनकर आया। मैंने मांडू नहीं देखा को कड़ी दर कड़ी निपटाते उन्हें मैंने देखा था। सामान बंधा था, सिर्फ़ हिन्दी बोलते अंग्रेज़ गार्ड के सीटी बजाने की देर थी।
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अलोप
स्वदेश दीपक के लिए
1
एक खेत की मेड़ पर चलती
मोरों की कतार में
कौनसे हो तुम?
पहचानना भी तो नहीं आसान
कि मायाविनी ले गई संग।
2
बरसों तक
खड़िया-चॉक जैसी किसी चीज़ से
लिखा रहा
जंग खाए मेनगेट पर तुम्हारा नाम
और एक दिन अचानक
दिखे मुझे
ताज़े पुते सफ़ेद पर
सुर्ख़ हिज्जे
ऊपर की चिटखनी बना रहा हालांकि
अंत तक
किसी पुराने पाजामे का वही नाड़ा।
3
जार्जेट के पीले पल्ले सी इक दुपहर*
तुमने बताया
कपड़ों को सूखते देखना
तुम्हारे प्रिय शगलों में शामिल है
शब्दों को भींचते तुम
उठते बातचीत में अचानक
और लिटा आते
अपनी पसंदीदा कमीज़ को औंधा
मुझे आज़ भी परेशान करता है ये रूपक
कि कैसे नर्म, लबालब रेशों में से नमी
हौले-हौले होती है फ़ाख़्ता।
* 'अश्वारोही' की पहली पंक्ति - जार्जेट के पीले पल्ले सी ये दुपहर नवंबर की ।
4
मैं तुम्हें करता था प्यार -
यही कुछ आखिरी शब्द रह जाते हैं
कहते को बाकि
लड़कर आता था मां से
तुम्हारे घर
कुछ नहीं कहते
कि ज़रूरत नहीं थी
तुम इकलौते थे शायद
जिसकी मैंने सुनी
और लौटता था कुछ कीमती लेकर
कि मैंने जाना कुछ बेहतर उसे
जिसने जाना खुद को पुरखु़लूस
हर कीमत पर।
5
तपाक से उठ बैठता हूं मैं
जब आता है तुम्हारा ध्यान
मेरे सपनों में दिखता है
अंतरिक्ष युद्ध में लहुलुहान
आखिरी कोई लड़ाका
कुएं की मुंडेर पर खड़ी लड़की
मुस्कराकर देखती है पीछे
एक अंतिम बार
घड़ी की किस करवट
उठे होगे तुम
करने तैयारी
या यूंही चल दिए होगे सुबह
नाश्ते के बाद
बेतरतीब
बेतरतीब नहीं थे तुम
उस नर्म सुबह
पहुंचे होगे तुम
अपने अदृश्य कोने
जिसे ढूंढा होगा बहुत पहले
कि खत्म हो सके काम
धूप आने तक।
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समर्थ वाशिष्ठ
नोट: ये कविता 'पहल’ के ताज़ा अंक 87 में छ्पी है - शुरुआत में दी टिप्पणी के साथ। सुझावों/प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
11 comments:
अच्छी कविताएं हैं। जैसे लबालब भरे रेशे सूखते हैं, वैसे ही भीतर कुछ धीरे धीरे गीला होता है। इस सीरिज को आपको आगे बढ़ाना चाहिए।
धन्यवाद गीतजी। ज़रूर कोशिश करूंगा।
excellent work...I am already your fan...so you can feel the wind from my end...looking forward to more great works from you...
धन्यवाद, धन्यवाद स्वप्निल सर!
अभी उदय प्रकाशजी के ऑरकुट प्रोफाईल से आपके ब्लोग का पता चला . कविता की मुझे कोई खास समझ नहीं है .पर आपकी कवितायेँ बहुत ही प्रभावशाली लगी , दिल से निकली हुई . स्वदेश दीपक जी मेरे प्रिय कथाकार हैं, उन पर लिखी कविताओं के लिए आपको बहुत -बहुत धन्यवाद .
Thank you, Gyanji.
समर्थ, वाकई बहुत अच्छी कविता श्रृंखला है। स्वदेश जी हमारे भी आत्मीय और प्रिय लेखक हैं, तुम्हारी कवितायेँ भी उतनी ही आत्मीय हैं।
Arun ji, bahut bahut dhanyavaad! It's so good to be back in touch with you.
बहुत मार्मिक कविताए...मै 'अलोप' के बारे मे कह रहा हू। इन कविताओ को पढ्ने के बाद अब मै भी दूर खेत के मेडो के पार मोरो के झुन्ड मे, किसी पहाडी तलहटी मे मेमनो-बकरियो के बीच, किसी सुनसान निर्जन जगह पर मुह ढाप कर सोये किसी अनजान आदमी के चेहरे मे....
किसी मन्दिर या गिरजाघर की सीढियो पर...स्वदेश जी को खोजने की कोशिश करूगा।
खूब लिखे क्योकि लिखना विस्मरण के विरुद्ध एक युद्ध है...स्म्रितियो की हिफ़ाज़त मे....!
sunder kavita. swadeshji ko maine bhi khub man se padha hai. ashwarohi kai bar. usme ek sher aata hai
tez itni thi ki sara shahar suna kar gayi.
rat bhar baitha raha mai us hawa ke samne.
bar bar yad aata hai
deepakji ne bataya tha ki kisi pakistani shayar ka hai.
Chetanji, bahut pyara sher hai yeh. Mujhe isi kahaani ke bhitar jo kavita hai wo bhi baar baar yaad aati hai.
Mera blog padhne ke liye dhanyavaad.
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