Wednesday

शाम के झुटपुटे में पुराना हवाई जहाज़

हिंदी में सैन्य पृष्ठभूमि की कवितायेँ बहुत कम लिखी गयी हैं. भारतीय वायुसेना से 35 वर्ष की लम्बी नौकरी के बाद सेवानिवृत्त श्री शैलेंद्र शैल की ये कविता ऐसी ही एक विरली कविता है. उनके ताज़ा कविता संग्रह कविता में सब कुछ संभव (अंतिका प्रकाशन) में संग्रहीत है. कविता का एक अदना सा अंग्रेज़ी अनुवाद भी यहाँ चस्पाँ कर रहा हूँ.

पढ़ें.
...

Hindi cannot boast of many poems set against a military backdrop. This poem, penned by Shailendra Shail who is now retired from the Indian Air Force after a career spanning 35 years, is one such poem. It is anthologized in his latest book of poems, Kavita Mein Sab Kuchh Sambhav (Antika Prakashan). A tentative English translation is pasted inline as well.

Please read and share your thoughts.

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A BURNT-OUT AIRCRAFT AT DUSK

Hidden in the thicket of trees
the aircraft looked
like a dark demon at dusk.
It was not an aircraft, in fact
but mere ribs of it
left after the crash –
bare, hostile and scary
like a wounded vulture.

He knew
nobody had been there for years;
penetrating the shoulder-high wild grass
he walked closer.

He is quite a timid fellow
but a bizarre curiosity
had drawn him there
With his head lowered
he entered the portion
which must have been once the cockpit –
Here sat the pilot
here co-pilot
and here navigator:
the navigator
under whose burnt-out seat
was a bird nest –
three chicks
trying to open their eyes
the navigator had just got married.

Then he walked into to the cargo chamber –
fifty paratroopers
how gracefully they used to
d
e
s
c
e
n
d
gradually:
fifty mushrooms
growing gradually;
Here stood Naik Ram Singh
here Hawaldar Aslam
ready to float in the air.

On the half-burnt wing
had shot up a tree –
looked from the distance like the English neem;
the leaf was not bitter.
He thought of sending a leaf to Salim Ali
and asking the tree's name –
then he remembered
Salim Ali was an expert on birds
not trees.

He was engrossed in this thought
when his foot struck something solid.
An army water bottle
as it is
despite a burnt-out outer felt.
He brought it home
as a memento.

on the way back he thought
displaying it on a fine stand
he would impress his friends
and tell him about the navigator
who had just got married
and the chicks
who under his burnt-out seat
were trying to open
                      their eyes.
...

Shailendra Shail

Translated from the Hindi by Samartha Vashishtha



Friday

Predicting Tianenmen with Hindsight


इन दिनों बारह साल पहले पढी केकी दारूवाला की ये कविता बहुत याद आई. अंततः, 'चंद्रभागा' का वो अंक ढूंढकर कविता टाइप कर डाली. पढ़ें...

"Where you have city squares
and unhappy students
you will eventually have tanks."


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Predicting Tianenmen with Hindsight
                                        - Keki N Daruwalla

Where there is spring
there will be flowers.
Where there are city squares
there will be students,
and speeches and slogans.
Dreams will hiss out of valves
like white steam.

The next day or the next week
or the week after that
come the armed police.
Where they go will be truncheons
and where there are truncheons
there are going to be sore backsides
and where there is tear gas
there'll be tears
(One needed no clairvoyance
for that one).

The troops will come in then,
recruits still in their teens,
proud of their uniforms.
They march so stiffly
they will be a tired lot
before they even reach the square.

They've been given pep talks,
even as they set out from the barracks.
"You'll get a few hoodlums there,
foreign agents mostly;
throw them out!"

But they get waylaid.
People start running alongside
these marching squares.
When people turn emotional
even cliches make sense.
"You are flesh of our flesh,
blood of our blood," they shout
"You can't fire at us!"

Loudspeakers start howling
like wolf-packs at each other.
The Party loudspeakers
give endless renditions of the martial law,
and read out tear jerking letters
from the mothers of the students
exhorting them to read
the key speeches of the Great Helmsman.

APCs now ring the town.
The reluctant troops from the city
have to be ringed
by less reluctant troops
from lesser cities,
and they in turn will be encircled
by troops from the very outposts,
from Tartary and Mongolia and the Gobi desert,
spiral around spiral,
an expanding universe of concentrics.

There will be vigils now and rumours:
such and such an army has left the barracks.
Helicopters have left a particular air base.
Cobbled on the pavements,
with the night as blanket,
the students go to sleep.

Next morning, if that's the word
for night cut up in half
by tracer bullets,
come the tanks.
Where you have city squares
and unhappy students
you will eventually have tanks.

Thursday

मुनीर बशीर के लिए एक कविता


रविशंकर हमेशा से मुझे संगीत जगत में एक aberration लगे। उनके जाने के बाद बहुत साल पहले लिखी अपनी ये कविता याद आई। इसमें उनका ज़िक्र है।

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मुनीर बशीर के लिए एक कविता


सारिका के पुराने अंक के
मुखपृष्ठ पर जब देखा तुम्हारा चेहरा
बहुत साल बीते।

तब कविता थी ज़िंदगी से नदारद
सीख रहा था शायद
राग भूपाली के आरोह-अवरोह -

नहीं जानता था बिल्कुल
सितार और ऊद के मध्य के अंतर।

शायद सुन पाता कभी तुम्हारे मक़ाम
अगर धरती होती चोकौर -
रविशंकर के लक़-दक़ चेहरे के साथ
दिख जाते तुम भी टी.वी. पर
एक-आध बार।

कहां, मुनीर?
धरती के किस कोने में निर्वासित
या शायद इराक़ में ही कहीं बजती ऊद -

भव्य बमवर्षकों की गर्जना तले
शायद बसरा में सहमते हों सुर
शायद जार्डन में मिल जाए कहीं
या जा पहुंची हो वो भी अमरीका।

दिन-रात इंटरनेट पर
पत्रिकाओं में, चैटरूमों में
नहीं मिलते मुनीर!

(मुनीर बशीर - सन् सत्तानवे में इंतक़ाल)

किसी अरबी अख़बार में
छ्पा होगा तुम्हारा मर्सिया -
अफ़सोस मैं अरबी नहीं जानता।
और आश्चर्य
ऊद भी ग़ायब!



++++

समर्थ वाशिष्ठ

(मुनीर बशीर इराक़ के मशहूर ऊद-वादक थे। अरबी संगीत में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा।)

Friday

'सबद' पर कुछ कविताएं

हिंदी की चर्चित ब्लॉग-पत्रिका, सबद, पर मेरा आत्मकथ्य और कुछ कविताएं प्रकाशित हुई हैं।

यहां देखें।

Saturday

लाल्टू जी की मेरी पसंदीदा कविता

कल शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में "Poems I Like" गोष्ठी थी। इसमें हर माह एक वरिष्ठ कवि अपनी पसंद की कविताओं का पाठ करता है। किसी भी काल या भाषा से आई कविताएं। शर्त ये है कि कवि अपनी कविताएं नहीं पढ़ सकता!

कल शैलेंद्र शैल जी ने अपनी पसंद की 20-25 कविताएं पढ़ीं। कुंवर नारायण, केदार जी जैसे दिग्गजों के साथ ही कुमार विकल की कुछ बिसराई कविताएं सुनने का भी मौका मिला। युवा कवि सुंदर चंद ठाकुर (नाम में शायद कोई अशुद्धि हो!) की "पिता-पुत्र" कविता ने भी अंदर तक कुछ भिगो दिया।

शैल जी ने मेरी भी एक कविता को पढ़ने योग्य पाया।

अंत में जब श्रोताओं से कहा गया कि वे भी अपनी पसंदीदा कविता बांटे तो मुझे लाल्टू की उस कविता का ध्यान आया जो पढ़ने के दस साल बाद आज भी मेरे लिए जीवित है। हज़ारों कविताएं पढ़ीं इन सालों में - लाल्टू की भी अनेक - पर ये कविता स्मृति से ओझल नहीं होती। स्मृति से ही जल्दी से काग़ज़ पर उतार कर वह कविता सुनाई। "न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना"। कविता नीचे दे रहा हूं - जैसी मुझे याद है। कोई त्रुटि मिले तो ज़रूर ख़बर करें। वैसे त्रुटि होगी ही।


न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना

न्यूयार्क में टेसा रहती है
एक बहुत नामी फ़िल्म हिरोइन को देखते ही मुझे
टेसा की याद आती है

ख़ूबसूरत है टेसा बहुत ख़ूबसूरत है

टेसा के साथ मैंने दुनिया-जहान की बातें की
जैसे हम सैंट्रल पार्क नहीं
खिदिरपुर की किसी चाय-दुकान में बैठे थे

टेसा के साथ ही मैंने
मृणाल सेन की 'ख़ारिज' देखी

टेसा ने बतलाया
कि मानागुआ के लोग
उसे कलकत्ता के लोगों जैसे लगते हैं

हम झगड़े एक रात बर्फ़ साक्षी रख
एक झील थी बर्फ़ की

टेसा फ़ोन पर रोती रही
मेरे कंधे तड़पते रहे उन पर टेसा नहीं थी

टेसा का न होना कितनी बड़ी दुर्घटना है
टेसा का न होना
सत्तर के इंक़लाब के न होने जैसा है

1990 में टेसा कहती है
तुम्हारी आवाज़ सुनकर बड़ा अच्छा लगा

कितना बड़ा शून्य
90 का कलकत्ता!



Friday

इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा...

सालों से ये ग़ज़ल अपने मामाजी के मुंह से सुनता आ रहा हूं। एमरजेंसी के ऐन बाद उन्होंने ये ग़ज़ल किसी पत्रिका में पढ़ी थी। उस वक़्त वे बीस साल के रहे होंगे। शायर का नाम नहीं मालूम। बहरहाल, कमाल की रचना है - पैनी राजनैतिक समझ से उपजी! उन्होंने आज ही मुझे डिक्टेट करवाई।


ग़ज़ल
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इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा
आइने में देखने दो मुझको चोटों के निशां

कल हुई थी गुप्त बैठक कर्णधारों के यहां
तय हुआ था बख़्श दो कुछ खास लोगों को ज़ुबां

आदमी के सोचने का दायरा सीमित करो
ताकि उसकी दिक्कतों का हो सके जल्दी निदां

देखकर कुछ हरकतें और जांचकर उनके बयां
हो रहा फिर से अंधेरा पहले जितना सावधां

कह रही लहरें नदी से आज थोड़ा कम उफ़न
बाढ़ का दौरा करेंगे देश के कुछ वायुयां

Tuesday

इंटरनेट दशक: 'अकार' में लेख

'अकार' के ताज़े अंक के मेहमान संपादक जीतेन्द्र गुप्ता हैं। उनके निर्देश पर इंटरनेट के इस दशक के ऊपर एक लेख तैयार किया, जो कि 'अकार' में छ्पा है। इसे लिखते वक़्त ख़्याल रखा कि इंटरनेट के बारे थोड़ा जानने वाले लोगों को भी ये सुपाठ्य लगे।

पढ़कर बताएं कैसा बन पड़ा है। यहां से डाउनलोड करें!