पिता की पचासवीं सालगिरह पर
मेरे सपनों में तुम आते हो
उद्दंड युवक
गोद में पिल्ले को खिलाते
और मैं कल्पना करता हूं वे स्त्रियां
जो हो सकतीं थी मां
पुरुष जो होते तुम
(शायद तब मैं जन्मता
और गहरे प्यार से)
सपनों में पिघलते हैं मोम के पंख
दीवारों और फ़र्श पर बिखरते
जब हम गुज़रते हैं जलती घाटियों से
कविता और प्रेम पर करते बहस
पचास, मेरे कानों में कहते हो तुम
पचास, गूंज़ता है वापिस तुम्हारे पास
और हम चलते जाते हैं साथ-साथ
साल दर साल
जब एक भी दिन हो काटना मुश्किल
सिर्फ़ तुम्हारी दाढ़ी होती जाती है
कुछ और धवल
सिर्फ़ तुम्हारी आंखें खोती जाती हैं
कुछ चमक
समर्थ वाशिष्ठ
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रसरंग (रविवारीय परिशिष्ट), दैनिक भास्कर, फरवरी 10, 2008