मैंने देखा है उन्हें
ऐन पगलाहट के क्षणों में भी
होश संभाले
चीख़ते-चिल्लाते
तानाशाह के कदमों से
अपने मारे जा चुके बेटों को उठाते
विशाल सेनाएं क़दमताल करतीं हैं
क्षितिज तक
आती हैं उन दिशाओं से जिनके बारे कोई नहीं जानता
चिंता में डूबी उनकी आंखों से गुज़र जाती हैं
उनके पास सिर्फ़ एक तिहाई इतिहास है
और सारी की सारी अफ़वाहें
वो धूल भरा पंख है
किसी शक्तिशाली सिंहासन के मुकुट में लगा हुआ
किसी चमकते हुए दिन पति छोड़ जाता है
लौटकर आते हैं बेटे भिक्षुओं के भेस में
एक स्त्री ढूंढ़ती है अपनी नींद के पांच घंटे
रात की मुर्दार शांति में सुबकती है मेरी मां
ऊंघते हुए मुझे कहानियां सुनाती है
मेरी बांहों में पिघलती एक स्त्री
मेरे शरीर के सब अंगों को
जोड़े रखती है एक साथ
हज़ारों साल से जारी है इंतज़ार
औरतें जो चली गईं
उनका बाकी नहीं कोई निशान
एक स्त्री के पास जाने को
कोई जगह नहीं होती।
समर्थ वाशिष्ठ
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रसरंग, दैनिक भास्कर, जून 2008
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