Thursday

एक और कविता

अलविदा



क्या था जो मैं कर पाता
साल के आखिरी दिन

एक मुखौटे बदलते दशक के
वीभत्स होते चेहरे पर
फिसलते पुराने से क्षण

वही धारावाहिक, वही स्मृतियां
कुरेदती हृदय के द्वार

सप्ताह की वही उदास कविता।

सो मैंने ढूंढ़ी अपनी धार
बना डाली दाढ़ी
और उसे पानी में बहता देख
कहा -
मेरी मुहब्बत के साल
भाड़ में जा।

समर्थ वाशिष्ठ

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पहल 82, 2006

Wednesday

अलोप - एक कविता

स्वदेश दीपक से मेरा परिचय थोड़ा पढ़ने और ज़्यादा बोलने की उम्र में हुआ। ये एक ऐसे शहर में रहने का वरदान था जहां का साहित्यिक परिवेश रंगीन मंचों से चिल्लाई जाने वाली तुकबंदी तक सीमित है।

मेरी उस वक़्त की अनेक बचकानी कविताओं को धैर्य से सुनने के अलावा, वे मेरे लिए ताज़ा किताबों और पत्रिकाओं के महत्त्वपूर्ण स्रोत बने।

दीपक का जाना मेरे लिए अचंभे से दूर सिर्फ़ दुःख बनकर आया। मैंने मांडू नहीं देखा को कड़ी दर कड़ी निपटाते उन्हें मैंने देखा था। सामान बंधा था, सिर्फ़ हिन्दी बोलते अंग्रेज़ गार्ड के सीटी बजाने की देर थी।


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अलोप




स्वदेश दीपक के लिए

1

एक खेत की मेड़ पर चलती
मोरों की कतार में
कौनसे हो तुम?

पहचानना भी तो नहीं आसान
कि मायाविनी ले गई संग।

2

बरसों तक
खड़िया-चॉक जैसी किसी चीज़ से
लिखा रहा
जंग खाए मेनगेट पर तुम्हारा नाम

और एक दिन अचानक
दिखे मुझे
ताज़े पुते सफ़ेद पर
सुर्ख़ हिज्जे

ऊपर की चिटखनी बना रहा हालांकि
अंत तक
किसी पुराने पाजामे का वही नाड़ा।

3

जार्जेट के पीले पल्ले सी इक दुपहर*
तुमने बताया
कपड़ों को सूखते देखना
तुम्हारे प्रिय शगलों में शामिल है

शब्दों को भींचते तुम
उठते बातचीत में अचानक
और लिटा आते
अपनी पसंदीदा कमीज़ को औंधा

मुझे आज़ भी परेशान करता है ये रूपक
कि कैसे नर्म, लबालब रेशों में से नमी
हौले-हौले होती है फ़ाख़्ता।

* 'अश्वारोही' की पहली पंक्ति - जार्जेट के पीले पल्ले सी ये दुपहर नवंबर की ।

4

मैं तुम्हें करता था प्यार -
यही कुछ आखिरी शब्द रह जाते हैं
कहते को बाकि

लड़कर आता था मां से
तुम्हारे घर
कुछ नहीं कहते
कि ज़रूरत नहीं थी

तुम इकलौते थे शायद
जिसकी मैंने सुनी

और लौटता था कुछ कीमती लेकर
कि मैंने जाना कुछ बेहतर उसे
जिसने जाना खुद को पुरखु़लूस
हर कीमत पर।

5

तपाक से उठ बैठता हूं मैं
जब आता है तुम्हारा ध्यान

मेरे सपनों में दिखता है
अंतरिक्ष युद्ध में लहुलुहान
आखिरी कोई लड़ाका

कुएं की मुंडेर पर खड़ी लड़की
मुस्कराकर देखती है पीछे
एक अंतिम बार

घड़ी की किस करवट
उठे होगे तुम
करने तैयारी

या यूंही चल दिए होगे सुबह
नाश्ते के बाद
बेतरतीब

बेतरतीब नहीं थे तुम

उस नर्म सुबह
पहुंचे होगे तुम
अपने अदृश्य कोने

जिसे ढूंढा होगा बहुत पहले
कि खत्म हो सके काम
धूप आने तक।


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समर्थ वाशिष्ठ





नोट: ये कविता 'पहल’ के ताज़ा अंक 87 में छ्पी है - शुरुआत में दी टिप्पणी के साथ। सुझावों/प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।


अंतत:...

सोचा एक नया चिठ्ठा शुरु कर ही दिया जाए। पहले भी कई किए, पर लगातार लिखता न रह सका। इस बार कोशिश करूंगा अपना कुछ अच्छा काम डालूं ताकि पाठकों की प्रतिक्रिया मिल सके। पहले पाठक मिलें इस बात की आशा है।

जल्दी ही और लिखता हूं।

हां एक बात और - द्विभाषी रखना चाहूंगा इस चिठ्ठे। ताकि अंग्रेज़ी में भी कुछ कविताएं और छिटपुट बांट सकूं।