1
मैंने जाना नहीं तुम्हें
जब थीं सोलह की
और ढूढ़ता रहा बरसों
तुम्हारे चेहरे पर उस उम्र का तेज।
तुमने खोदा मुझे बचपन से अचानक
और सींचा, ढाला, बनाया
अपने लिए
चुपचाप।
2
तुम कभी नहीं जान पाओ शायद
मैं कैसे जिया तुम्हारे बगैर
इकलौती आरामकुर्सी रही खाती हिचकोले
रोशनदान को तरसते कमरे के बीचोंबीच
जैसे मां ढके रही मेरे जुर्म-दोष बरसों-बरस
जूठे बर्तनों पर औंधी पड़ी रही तश्तरियां
बहुत कुछ ज़ाया गया शहर की नालियों में
जो लगना था कभी मेरे अंग
बहुत कुछ ख़ाक़ गया पकते वक़्त
जो कल्पना में रहा सुगंधों से भरपूर
सुबहों में सीढ़ियां बस उतरी हीं उतरी हीं
बिखरी रही मैली कमीज़ें हर ओर
खाली राशन डिब्बों से परेशान कमरा मेरा
सहेजे रहा मेरे दुर्गुणों को हर छोर
कि तुम आओ और चिल्ला सको बेधड़क
कि क्या मचा रक्खा है ये सब?
समर्थ वाशिष्ठ
___________
समकालीन भारतीय साहित्य, 2008
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12 comments:
बहुत अच्छा लिखा है।
घुघूती बासूती
धन्यवाद!
तुमने खोदा मुझे बचपन से अचानक
और सींचा, ढाला, बनाया
अपने लिए
चुपचाप।
इस चुपचाप के बाद वाले शोर में कुछ बज रहा है, क्या है वह....
Shaayda ji, usee shor mein kuchh aawazon kee talash jaari hai.
Mere blog pe aane ke liye dhanyavaad.
Dear Samartaha
I wish to include ur poems on my site and write on your poetry so kindly send me your collections mail me Shaleen K Singh shaleen999@aol.in or drshaleen111@yahoo.co.in
अच्छी कविता है यार. यह पत्रिका तो मुझे मिली ही नहीं थी.
बहुत दिनों बाद आना हुआ यहां पर.
सचमुच समर्थ। सचमुच विशिष्ट। यानी कवि समर्थ वाशिष्ठ।
Dhanyavaad, Arunji. Aap nahin jaante ye alfaaz mere liye kitna maayna rakhte hain.
तुम कभी नहीं जान पाओ शायद
मैं कैसे जिया तुम्हारे बगैर
" wah wah, bhut bhavntmk pankteeyna"
Regards
sir
i liked your poems very much and i have decided to translate these poems into english so that english readers can enjoy these poems
dr. ram sharma
senior lecturer in english
janta vedic college, baraut, baghpat, u.p.,india
Dhanyavaad, Dr Ram Sharma. Kripya mujhe anuvaad vashishtha(at)gmail(dot)com par avashya bhejein.
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