बाहर देखते अवाक
ढल रहा है सूर्य
सब दुरुस्त
जो नहीं वो होगा ठीक
क्षितिज के पार
कोई जानता है तकते उन्हें
दूर से सलाम कहता एक दोस्त
फिर ढल रहा है सूर्य
सैंकड़ों बार दिखता ये दृश्य
देर से भटका कोई परिंदा
लौट पाता घर
कुछ देर में
उनकी पलकें हो जाएंगी भारी
गिरते सिर
रात्रि से पाएंगे पार
सब जो उनके सोने पर लेगा अंगड़ाई
कभी नहीं जानेगा सूर्य
समर्थ वाशिष्ठ
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पहल 82, 2006
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2 comments:
बहुत उम्दा,बधाई.
dhanyavaad, sameer ji.
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