Thursday

रात्रि बस में बूढ़े दंपत्ति

बाहर देखते अवाक

ढल रहा है सूर्य
सब दुरुस्त
जो नहीं वो होगा ठीक

क्षितिज के पार
कोई जानता है तकते उन्हें
दूर से सलाम कहता एक दोस्त

फिर ढल रहा है सूर्य
सैंकड़ों बार दिखता ये दृश्य
देर से भटका कोई परिंदा
लौट पाता घर

कुछ देर में
उनकी पलकें हो जाएंगी भारी
गिरते सिर
रात्रि से पाएंगे पार

सब जो उनके सोने पर लेगा अंगड़ाई
कभी नहीं जानेगा सूर्य


समर्थ वाशिष्ठ
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पहल 82, 2006