Thursday

रब्बी शेरगिल का 'छ्ल्ला'

कल आधी रात जब सोने की तैयारी कर रहा था, तब टी० वी० पर रब्बी शेरगिल की नई अलबम में से 'छ्ल्ला' सुना। कमाल का गाना और उतनी ही कमाल की वीडियो। 'छ्ल्ला' हालांकि पंजाब का एक लोक-गीत है जिसे कई गायकों ने अपने अंदाज़ में गाया है। रब्बी का कमाल ये ही है कि आपके अंदर जज़्ब हो चुकी किसी धुन को एक नए रूप में पेश कर देता है। उसकी पहली अलबम में से भी 'बुल्ला की जानां' शायद अकेला ऐसा गाना है जो मैं अब अपने MP3 प्लेयर से मिटा चुका हूं। 'तोतेया मनमोतेया' और 'एक कुड़ी जिदा नां मोहब्बत' जैसे बा़क़ी गाने अब भी बहुत सुनता हूं। 'छ्ल्ला' के बोल जो सुनता आया हूं (ख़ासतौर पर गुरदास मान वाला संस्करण) से काफ़ी अलग़ लगे। क्या रब्बी ने 'जुगनी' की तरह इसे भी अपनी तरह से दोबारा लिखा है? मालूम नहीं।

बहरहाल, गाने की जिन पंक्तियों ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, उनका बेकार हिंदी तर्जुमा कु्छ यूं हो सकता है:

छ्ल्ला बड़ है एक अकेला
जिसने थाम रक्खा है पल्ला
नीचे धरती का और ऊपर अल्लाह
कितनी गहरी जाती हैं उसकी जड़ें
इसका उसे ख़ुद ही नहीं पता

यूट्यूब पर यहां सुनिये और देखिए। आपको भी पसंद आएगा।

6 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

धन्‍यवाद समर्थ जी छल्‍ला के लिए अच्‍छा लगा

manvinder bhimber said...

apke blog se gujaran achcha laga

Manish Kumar said...

shukriya is jaankari ke liye.

महेन said...

छल्ला मार्किट में मिला कि नहीं?

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

हांजी, मार्किट में मिल गया। अलबम के कुछ गाने ज़्यादा प्रभावशाली नहीं लगे। खैर!

गौरव सोलंकी said...

तोतेया और एक कुड़ी तो मुझे भी बहुत पसन्द हैं। बहुत सुनता हूं। छल्ला भी सुनके देखते हैं।