जयसूर्य
उनींदा सूर्यछिटककर जड़ता
चढ़ता है
अलसाए शहर पर।
छिन्न-विछिन्न हिमकणों की सेना
पुनर्जीवन पा
उड़ाती है प्रात:-किरणों की
धज्जियां
कौन कहता है
केवल ईश्वर ही
सर्वव्याप्त है?
'वर्तमान साहित्य', 2001
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शिमला के ऊपर बिंब कविताओं की यह श्रृंखला 2001 में लिखी थी। आज भी इसे अपने ठीक काम में गिनता हूं। वैसे अपने काम को अच्छा या बुरा कहना कोई मायने नहीं रखता। पाठक ही किसी रचना की सार्थकता की कसौटी होते हैं।
शिमला में मेरा लगभग सारा होश-वाला बचपन बीता। आज भी वो शहर घर जैसा लगता है। ये कविताएं हालांकि शिमला छोड़ने के छ:-सात साल बाद लिखी गईं। कैसी बन पड़ी हैं ज़रूर बताएं।
6 comments:
अच्छी लगीं ..
धन्यवाद, प्रत्यक्षा जी।
बहुत उम्दा बन पड़ी है, बधाई!
समर्थ,
बहुत दिनों में आते हो मगर अच्छा सामान लेकर आते हो।
उड़न तश्तरी जी, धन्यवाद!
महेन जी, यूं अंतराल पर टपकने के लिए क्षमा चाह्ता हूं। इन दिनों रोज़गार के ग़म कुछ ज़्यादा दिलकश हुए हैं। कोशिश करूंगा आगे से अंतराल कम रहे। साथ बने रहने के लिए धन्यवाद!
कार-ए-जहां या ग़म-ए-रोज़गार… :(
ये दिलकशी कुछ कम हो… आमीन! सुम्मा आमीन!!!
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