Monday

शिमला 1

जयसूर्य

उनींदा सूर्य
छिटककर जड़ता
चढ़ता है
अलसाए शहर पर।
छिन्न-विछिन्न हिमकणों की सेना
पुनर्जीवन पा
उड़ाती है प्रात:-किरणों की
धज्जियां
कौन कहता है
केवल ईश्वर ही
सर्वव्याप्त है?


समर्थ वाशिष्ठ
'वर्तमान साहित्य', 2001

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शिमला के ऊपर बिंब कविताओं की यह श्रृंखला 2001 में लिखी थी। आज भी इसे अपने ठीक काम में गिनता हूं। वैसे अपने काम को अच्छा या बुरा कहना कोई मायने नहीं रखता। पाठक ही किसी रचना की सार्थकता की कसौटी होते हैं।

शिमला में मेरा लगभग सारा होश-वाला बचपन बीता। आज भी वो शहर घर जैसा लगता है। ये कविताएं हालांकि शिमला छोड़ने के छ:-सात साल बाद लिखी गईं। कैसी बन पड़ी हैं ज़रूर बताएं।

6 comments:

Pratyaksha said...

अच्छी लगीं ..

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

धन्यवाद, प्रत्यक्षा जी।

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा बन पड़ी है, बधाई!

महेन said...

समर्थ,
बहुत दिनों में आते हो मगर अच्छा सामान लेकर आते हो।

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

उड़न तश्तरी जी, धन्यवाद!

महेन जी, यूं अंतराल पर टपकने के लिए क्षमा चाह्ता हूं। इन दिनों रोज़गार के ग़म कुछ ज़्यादा दिलकश हुए हैं। कोशिश करूंगा आगे से अंतराल कम रहे। साथ बने रहने के लिए धन्यवाद!

महेन said...

कार-ए-जहां या ग़म-ए-रोज़गार… :(

ये दिलकशी कुछ कम हो… आमीन! सुम्मा आमीन!!!