सालों से ये ग़ज़ल अपने मामाजी के मुंह से सुनता आ रहा हूं। एमरजेंसी के ऐन बाद उन्होंने ये ग़ज़ल किसी पत्रिका में पढ़ी थी। उस वक़्त वे बीस साल के रहे होंगे। शायर का नाम नहीं मालूम। बहरहाल, कमाल की रचना है - पैनी राजनैतिक समझ से उपजी! उन्होंने आज ही मुझे डिक्टेट करवाई।
ग़ज़ल
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इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा
आइने में देखने दो मुझको चोटों के निशां
कल हुई थी गुप्त बैठक कर्णधारों के यहां
तय हुआ था बख़्श दो कुछ खास लोगों को ज़ुबां
आदमी के सोचने का दायरा सीमित करो
ताकि उसकी दिक्कतों का हो सके जल्दी निदां
देखकर कुछ हरकतें और जांचकर उनके बयां
हो रहा फिर से अंधेरा पहले जितना सावधां
कह रही लहरें नदी से आज थोड़ा कम उफ़न
बाढ़ का दौरा करेंगे देश के कुछ वायुयां
Tuesday
इंटरनेट दशक: 'अकार' में लेख
'अकार' के ताज़े अंक के मेहमान संपादक जीतेन्द्र गुप्ता हैं। उनके निर्देश पर इंटरनेट के इस दशक के ऊपर एक लेख तैयार किया, जो कि 'अकार' में छ्पा है। इसे लिखते वक़्त ख़्याल रखा कि इंटरनेट के बारे थोड़ा जानने वाले लोगों को भी ये सुपाठ्य लगे।
पढ़कर बताएं कैसा बन पड़ा है। यहां से डाउनलोड करें!
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