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जयंत महापात्र और चंद्रभागा

जयंत महापात्र से मेरा बातचीत का सिलसिला साल 2000 में शुरु हुआ। उन दिनों मैं बहुत शिद्दत से अपने कैशोर्य की कविताओं को किसी अच्छी पत्रिका में छपवाने का प्रयास कर रहा था (बहुत सफलता मिली हो, ऐसा नहीं है!)। महापात्र द्वारा संपादित चंद्रभागा हाल में ही दोबारा निकलनी शुरु हुई थी। इससे पहले, चंद्रभागा की पहली श्रृंखला 1975 से शुरु होकर 79 में छ्पनी बंद हुई थी। ऐसा क्य़ूं हुआ ये तो मालूम नहीं, पर आर्थिक कारण ज़रूर रहे होंगे। 70 के दशक में भारतीय अंग्रेज़ी कविता अपने छुटपन में थी। पर चंद्रभागा सिर्फ़ अंग्रेज़ी लेखन की पत्रिका कभी नहीं रही। भारतीय भाषाओं की कविताओं के अनुवाद पत्रिका में हमेशा प्रमुखता से स्थान पाते रहे। साथ ही, पहली श्रृंखला में भारतीय अंग्रेज़ी कविता की दूसरी पीढ़ी के कई जाने-माने कवि छपे और सराहे गए।

सो मैंने जयंत जी को कुछ कविताएं भेजने का मन बनाया। उनका पता मालूम नहीं था; सिर्फ़ इतना पता था कि वो कटक के रहने वाले है। मैंने जयंत महापात्र, कटक, उड़ीसा के पते पर डाक भेजी, जिसका जवाब लगभग तुरंत ही आ गया। कुछ कविताएं स्वीकृत कर ली गईं थी। संवाद चला और मैंने महापात्र बहुत ही सहज और मिलनसार व्यक्ति पाया। यहां यह कह देना उचित होगा कि भारतीय अंग्रेज़ी कवियों की एक पूरी कतार उनसे शुरु होती है। 70 के दशक में शिकागो की अति-प्रतिष्ठित पोयट्री पत्रिका से वे पुरस्कृत हो चुके थे। एक समीक्षक ने ज़िक्र किया है कि उस दौर की कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका उठाने पर महापात्र की कविता प्रमुखता से छ्पी मिलती थी। यह भी कहना देना उचित लगता है कि भारतीय अंग्रेज़ी कवि अपनी शालीनता के लिए कम ही जाने गए हैं।

खैर, अगले कुछ सालों में मुझे उनसे कई बार संवाद का मौका मिला। पत्रिका के लिए हमने अपने सीमित साधनों में एक वेबसाइट भी तैयार की। चंद्रभागा को निकालने में आने वाली दिक्कतों के बारे महापात्र ने मुझे बताया। वे उम्र का सत्तरवां वसंत पार कर चुके थे और कटक के लब्ध-प्रतिष्ठ रेवन्शॉ कॉलेज के भौतिकी प्रोफ़ेसर के अपने पद से कई साल पहले रिटायर हो चुके थे। बातों में बात ये भी निकली कि अंग्रेज़ी गद्य के ताबड़तोड़ बाज़ार का खमियाज़ा कविता को चुकाना पड़ा है। सच ये है कि अंग्रेज़ी में कविता लिखने की वजहें कम से कमतर होती जा रही हैं। चंद्रभागा जैसे प्रकाशनों के लिए आर्थिक मदद के कोई ज़रिए नहीं है। लगभग सभी बड़ी प्रकाशन ’कंपनियां’ कविता को सिरे से ख़ारिज कर देती हैं। ऐसा भारत ही में हो या केवल अंग्रेज़ी में, ऐसी बात नहीं है।

चंद्रभागा की दूसरी श्रृंखला सात साल तक अनवरत चली। फिर पता चला कि महापात्र का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और शायद पत्रिका को विराम देना पड़े। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद उन्होंने चंद्रभागा की सामग्री और मुद्रण के ऊंचे स्तर को हमेशा बनाए रखा। 128 पन्नों की चंद्रभागा का हर अंक संग्रहणीय बनाया। हाल के एक अंक में पाश की कविताओं के अनुवाद छ्पे। चांद का मुंह टेढ़ा है और लुक़मान अली छ्पीं। केदारनाथ सिंह जी की कविताओं के अनुवाद भी छपे। उत्तर-पूर्व की खासी और मणिपुरी आदि भाषाओं की कविताओं के दुर्लभ अनुवाद भी चंद्रभागा में समय-समय पर पढ़ने को मिले। साथ ही दिलीप चित्रे और केकी दारुवाला जैसे कवियों का ताज़ा काम भी। कविता के ऊपर फोकस रखते हुए हर अंक में दो-तीन श्रेष्ठ कहानियों को भी प्रकाशित किया जाता रहा।

अभी हाल ही में मालूम हुआ कि चंद्रभागा अनियतकालीन पत्रिका के तौर पर चलती रहेगी। एक तरह से इसे पत्रिका की तीसरी श्रृंखला मानें। आशा है कि महापात्र सालों तक भारतीय कविता के स्तंभ बने रहेंगे। जब तक उन जैसे लोग हैं उम्मीद बनी रहेगी।

बहरहाल, चंद्रभागा में छ्पी दसियों नायाब कविताओं में से इसे देखें। अरुण कोलातकर यूं भी कमाल के कवि थे, पर ये कविता मुझे खास तौर पर पसंद है।

महापात्र के साथ एक साक्षात्कार यहां पढ़ें। उनकी एक कविता यहां।

4 comments:

Geet Chaturvedi said...

कविता के साथ यह दिक़्क़त तो हर जगह है. हिंदी में पत्रिकाओं में कविता के लिए थोड़ी जगह है अब भी, पर पुस्‍तक प्रकाशन में वैसा ही मामला है.
सच बात है, 'अंग्रेज़ी गद्य के ताबड़तोड़ बाज़ार' ने कविता की संभावनाओं को बहुत चोट दी है. वही नहीं, दूसरी भाषाओं के लेखन को भी. अंग्रेज़ी का एक औसत लेखक अपना तीसरा उपन्‍यास लेकर हाजि़र है और जालंधर जैसे छोटे से शहर के बस अड्डे पर, जहां अमूमन ग्रामीण लोग आते जाते हैं, हर रोज़ उसकी बीस-पचीस प्रतियां बिक रही हैं. कैसा घनघोर मायाजाल है यह बाज़ार का.

अच्‍छी पोस्‍ट है ये. महापात्र जैसे सरल लोग, (हिंदी में जैसे ज्ञानरंजन जी) अब नहीं बनते क्‍या? जब ये नहीं रहेंगे, तब? कितना बड़ा शून्‍य होगा?

समर्थ वाशिष्ठ / Samartha Vashishtha said...

गीतजी, मेरे मुंह की बात छीन ली आपने। ज्ञानजी और जयंतजी में बहुत समानताएं हैं। जितने लेखकों को ये लोग सामने लाए, कम ही लोगों के हाथों मुमकिन है।

मेरी पोस्ट पढ़ने और उस पर कमेंट करने के लिए धन्यवाद!

vijaymaudgill said...

समर्थ जी, मैंने आपका कमैंट पढ़ा था। गीत जी के ब्लाग पर अच्छा लगा पढ़कर कि आपको शिव कुमार बटालवी पसंद है।
जो गीत आपको पसंद है, वह मुझे भी बहुत पसंद है। मगर फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मुझे नुसरत की आवाज़ में वो पसंद है। मेरे ब्लाग पर वो नुसरत की आवाज़ में मौजूद है। लाइव पर्फारमैंस है। नुसरत साहब की। हो सके तो सुनिएगा।
माए नीं माए मेरे गीतां के नैणां चों
बिरहो दी रड़क पवे
आख सू नीं माए ऐनूं रोवे बुल्ल चित्थ के नीं
जग किते सुण न लवे
माए नीं माए मेरे गीतां के नैणां चों
बिरहो दी रड़क पवे
आपे नीं मैं बालड़ी हां
आप हाले मत्तां जोगी
मत किहड़ा इस नूं दवे
माए नीं माए मेरे गीतां के नैणां चों
बिरहो दी रड़क पवे
हो सके तो सुनिएगा

bharat bhushan said...

complete poetry of Paash in Punjabi, Hindi and English and much more about his life and times is available at my blog http://paash.wordpress.com