मैंने देखा है उन्हें
ऐन पगलाहट के क्षणों में भी
होश संभाले
चीख़ते-चिल्लाते
तानाशाह के कदमों से
अपने मारे जा चुके बेटों को उठाते
विशाल सेनाएं क़दमताल करतीं हैं
क्षितिज तक
आती हैं उन दिशाओं से जिनके बारे कोई नहीं जानता
चिंता में डूबी उनकी आंखों से गुज़र जाती हैं
उनके पास सिर्फ़ एक तिहाई इतिहास है
और सारी की सारी अफ़वाहें
वो धूल भरा पंख है
किसी शक्तिशाली सिंहासन के मुकुट में लगा हुआ
किसी चमकते हुए दिन पति छोड़ जाता है
लौटकर आते हैं बेटे भिक्षुओं के भेस में
एक स्त्री ढूंढ़ती है अपनी नींद के पांच घंटे
रात की मुर्दार शांति में सुबकती है मेरी मां
ऊंघते हुए मुझे कहानियां सुनाती है
मेरी बांहों में पिघलती एक स्त्री
मेरे शरीर के सब अंगों को
जोड़े रखती है एक साथ
हज़ारों साल से जारी है इंतज़ार
औरतें जो चली गईं
उनका बाकी नहीं कोई निशान
एक स्त्री के पास जाने को
कोई जगह नहीं होती।
समर्थ वाशिष्ठ
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रसरंग, दैनिक भास्कर, जून 2008
Tuesday
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8 comments:
बहुत कुछ सोचने को उकसाती हुई सुन्दर कविता। मैंने मूल अंग्रेजी में भी पढ़ी।
घुघूती बासूती
yahi naari jiwan ki widambana hai,aap is sachchayi ke liye badhayi ke patra hain badhayi swikaren..
दिल को छू जाने वाला दर्द लिख दिया है आपने इस कविता में ..कई बार पढ़ी मैंने यह शुर्किया इसको यहाँ देने के लिए
Mired Mirage, Lovely and Ranju, aapke comments ke liye bahut bahut shukriya.
बहुत अच्छी कविता लिखी है समर्थ आपने, इतनी कम उम्र में ऐसा लिखना, हैट्स आफ टु यू
dhanyavaad, neelima ji.
बहुत बढ़िया .
behtareen kavita
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