Saturday

लाल्टू जी की मेरी पसंदीदा कविता

कल शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में "Poems I Like" गोष्ठी थी। इसमें हर माह एक वरिष्ठ कवि अपनी पसंद की कविताओं का पाठ करता है। किसी भी काल या भाषा से आई कविताएं। शर्त ये है कि कवि अपनी कविताएं नहीं पढ़ सकता!

कल शैलेंद्र शैल जी ने अपनी पसंद की 20-25 कविताएं पढ़ीं। कुंवर नारायण, केदार जी जैसे दिग्गजों के साथ ही कुमार विकल की कुछ बिसराई कविताएं सुनने का भी मौका मिला। युवा कवि सुंदर चंद ठाकुर (नाम में शायद कोई अशुद्धि हो!) की "पिता-पुत्र" कविता ने भी अंदर तक कुछ भिगो दिया।

शैल जी ने मेरी भी एक कविता को पढ़ने योग्य पाया।

अंत में जब श्रोताओं से कहा गया कि वे भी अपनी पसंदीदा कविता बांटे तो मुझे लाल्टू की उस कविता का ध्यान आया जो पढ़ने के दस साल बाद आज भी मेरे लिए जीवित है। हज़ारों कविताएं पढ़ीं इन सालों में - लाल्टू की भी अनेक - पर ये कविता स्मृति से ओझल नहीं होती। स्मृति से ही जल्दी से काग़ज़ पर उतार कर वह कविता सुनाई। "न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना"। कविता नीचे दे रहा हूं - जैसी मुझे याद है। कोई त्रुटि मिले तो ज़रूर ख़बर करें। वैसे त्रुटि होगी ही।


न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना

न्यूयार्क में टेसा रहती है
एक बहुत नामी फ़िल्म हिरोइन को देखते ही मुझे
टेसा की याद आती है

ख़ूबसूरत है टेसा बहुत ख़ूबसूरत है

टेसा के साथ मैंने दुनिया-जहान की बातें की
जैसे हम सैंट्रल पार्क नहीं
खिदिरपुर की किसी चाय-दुकान में बैठे थे

टेसा के साथ ही मैंने
मृणाल सेन की 'ख़ारिज' देखी

टेसा ने बतलाया
कि मानागुआ के लोग
उसे कलकत्ता के लोगों जैसे लगते हैं

हम झगड़े एक रात बर्फ़ साक्षी रख
एक झील थी बर्फ़ की

टेसा फ़ोन पर रोती रही
मेरे कंधे तड़पते रहे उन पर टेसा नहीं थी

टेसा का न होना कितनी बड़ी दुर्घटना है
टेसा का न होना
सत्तर के इंक़लाब के न होने जैसा है

1990 में टेसा कहती है
तुम्हारी आवाज़ सुनकर बड़ा अच्छा लगा

कितना बड़ा शून्य
90 का कलकत्ता!



Friday

इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा...

सालों से ये ग़ज़ल अपने मामाजी के मुंह से सुनता आ रहा हूं। एमरजेंसी के ऐन बाद उन्होंने ये ग़ज़ल किसी पत्रिका में पढ़ी थी। उस वक़्त वे बीस साल के रहे होंगे। शायर का नाम नहीं मालूम। बहरहाल, कमाल की रचना है - पैनी राजनैतिक समझ से उपजी! उन्होंने आज ही मुझे डिक्टेट करवाई।


ग़ज़ल
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इससे पहले मैं ज़मानत पर किया जाऊं रिहा
आइने में देखने दो मुझको चोटों के निशां

कल हुई थी गुप्त बैठक कर्णधारों के यहां
तय हुआ था बख़्श दो कुछ खास लोगों को ज़ुबां

आदमी के सोचने का दायरा सीमित करो
ताकि उसकी दिक्कतों का हो सके जल्दी निदां

देखकर कुछ हरकतें और जांचकर उनके बयां
हो रहा फिर से अंधेरा पहले जितना सावधां

कह रही लहरें नदी से आज थोड़ा कम उफ़न
बाढ़ का दौरा करेंगे देश के कुछ वायुयां

Tuesday

इंटरनेट दशक: 'अकार' में लेख

'अकार' के ताज़े अंक के मेहमान संपादक जीतेन्द्र गुप्ता हैं। उनके निर्देश पर इंटरनेट के इस दशक के ऊपर एक लेख तैयार किया, जो कि 'अकार' में छ्पा है। इसे लिखते वक़्त ख़्याल रखा कि इंटरनेट के बारे थोड़ा जानने वाले लोगों को भी ये सुपाठ्य लगे।

पढ़कर बताएं कैसा बन पड़ा है। यहां से डाउनलोड करें!

प्रतिलिपि में नई कविताएं

'प्रतिलिपि' के ताज़ा अंक में कुछ कविताएं आईं हैं। इनमें दिल्ली के ऊपर एक (थोड़ी) लंबी कविता भी है, जो मुझे अच्छी लगती है।

यहां देखें।

पद्मश्री जयंत महापात्र

इस साल धोनियों और भज्जियों के बीच पद्मश्री की सूची में जयंत महापात्र का भी नाम है। बहुत देर से और कम ही सही फिर भी! वे अब 81 साल के हो चुके हैं। 'चंद्रभागा' का प्रकाशन, जहां तक मैं जानता हूं, अब स्थगित है। बहुत कुछ पहल की तर्ज़ पर। भारतीय कविता के लिए यह अपूरणीय क्षति होगी।

उनके बारे में मेरा पु्राना लेख यहां देखें|

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पुनश्च: जानता हूं ब्लॉग आजकल ठंडा है। फिर भी अगर आप यहां हैं तो धन्यवाद! एक दोस्त के शब्दों में कहूं तो - मंदी ने वॉट लगाई है रे बाबा! जल्दी मिलते रहेंगे अब, ऐसी आशा है।