कल शैलेंद्र शैल जी ने अपनी पसंद की 20-25 कविताएं पढ़ीं। कुंवर नारायण, केदार जी जैसे दिग्गजों के साथ ही कुमार विकल की कुछ बिसराई कविताएं सुनने का भी मौका मिला। युवा कवि सुंदर चंद ठाकुर (नाम में शायद कोई अशुद्धि हो!) की "पिता-पुत्र" कविता ने भी अंदर तक कुछ भिगो दिया।
शैल जी ने मेरी भी एक कविता को पढ़ने योग्य पाया।
अंत में जब श्रोताओं से कहा गया कि वे भी अपनी पसंदीदा कविता बांटे तो मुझे लाल्टू की उस कविता का ध्यान आया जो पढ़ने के दस साल बाद आज भी मेरे लिए जीवित है। हज़ारों कविताएं पढ़ीं इन सालों में - लाल्टू की भी अनेक - पर ये कविता स्मृति से ओझल नहीं होती। स्मृति से ही जल्दी से काग़ज़ पर उतार कर वह कविता सुनाई। "न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना"। कविता नीचे दे रहा हूं - जैसी मुझे याद है। कोई त्रुटि मिले तो ज़रूर ख़बर करें। वैसे त्रुटि होगी ही।
न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना
न्यूयार्क में टेसा रहती है
एक बहुत नामी फ़िल्म हिरोइन को देखते ही मुझे
टेसा की याद आती है
ख़ूबसूरत है टेसा बहुत ख़ूबसूरत है
टेसा के साथ मैंने दुनिया-जहान की बातें की
जैसे हम सैंट्रल पार्क नहीं
खिदिरपुर की किसी चाय-दुकान में बैठे थे
टेसा के साथ ही मैंने
मृणाल सेन की 'ख़ारिज' देखी
टेसा ने बतलाया
कि मानागुआ के लोग
उसे कलकत्ता के लोगों जैसे लगते हैं
हम झगड़े एक रात बर्फ़ साक्षी रख
एक झील थी बर्फ़ की
टेसा फ़ोन पर रोती रही
मेरे कंधे तड़पते रहे उन पर टेसा नहीं थी
टेसा का न होना कितनी बड़ी दुर्घटना है
टेसा का न होना
सत्तर के इंक़लाब के न होने जैसा है
1990 में टेसा कहती है
तुम्हारी आवाज़ सुनकर बड़ा अच्छा लगा
कितना बड़ा शून्य
90 का कलकत्ता!